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महा बैंक डकैती / सुनील
जनवरी 26, 2014 अफ़लातून अफलू द्वारा
जब खबरें टुकडों में मिलती है तो उनका पूरा अर्थ पता नहीं चलता है। उनको आपस में जोड़ने से पूरा रहस्य खुलता है। वैश्वीकरण के इस जमाने में कारपोरेट बन चुका मीडिया भी कोशिश करता है कि खबरें सनसनी के रूप में ही मिले, समग्रता में नहीं और सच परदे में ही रहे।
ऐसी ही एक खबर दिसंबर में आई। एक प्रवासी भारतीय पूंजीपति ने अपनी बेटी की शादी स्पेन के बार्सीलोना शहर में इतने धूमधाम से की कि यह दुनिया की दूसरी सबसे महंगी शादी बन गई। प्रमोद मित्तल की बेटी सृष्टि की शादी में 505 करोड़ रूपये खर्च हुए। प्रमोद मित्तल दुनिया के सबसे बड़े अमीरों में शामिल लक्ष्मी निवास मित्तल का छोटा भाई है। लक्ष्मी मित्तल की बेटी वनिषा की शादी 2004 में फ्रांस में हुई, वह भी कोई कमजोर नहीं थी। उसमें भी करीब 400 करोड़ रूपये खर्च हुए। प्रमोद की पहली बेटी वर्तिका की शादी 2011 में तुर्की के इस्तंबुल शहर में हुई, वह भी दुनिया की महंगी शादियों में एक है।
ऐसा लगता है कि भाईयों में बेटियों की शादियों में खर्च करने की होड़ चल रही है। लक्ष्मी मित्तल 2004 में तब भी चर्चा में आया जब उसने लंदन में करीब 600 करोड़ रूपये की कोठी खरीदी, जिसे दुनिया के सबसे महंगे घर की पदवी मिली। चार साल बाद उसने अपनी बेटी वनिषा को इससे भी महंगा घर खरीदकर दिया। वह दुनिया की इस्पात की सबसे बड़ी कंपनी ‘‘आर्सलर मिततल’’ का मालिक है।
इतनी खबर मिलने पर कई लोग इसे भारत की बढ़ती समृद्धि, भारतीयों की बढ़ती सफलता, भारतीयों की उद्यमिता आदि का प्रतीक मान सकते हैं और इसे भारत के लिए गौरव का विषय मान सकते हंै। लेकिन एक सहज सवाल उठता है कि यह अनाप-शनाप पैसा आया कहां से ? इसका स्त्रोत क्या है ?
कर्ज लो और अय्याशी करो
एक दूसरी जानकारी जो इस खबर के साथ नहीं आई, से रहस्य की परतें खुलती है। वह यह कि प्रमोद मित्तल और उनकी कंपनी इस देश के बड़े डिफाल्टर कर्जदारों में से एक रहे हैं। अपने भाई विनोद मित्तल के साथ वे 2010 तक इस्पात इंडस्ट्रीज नामक भारत की प्रमुख इस्पात कंपनी के मालिक रहे है। इस कंपनी को भारत के बैंकों और वित्तीय संस्थाओं ने बार-बार विशाल कर्जे दिए, न चुकाने पर माफ किए या उनका नवीनीकरण किया। यह भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अनुमोदित ‘कंपनी कर्ज पुनर्गठन’ (कारपोरेट डेब्ट रिस्ट्रक्चरिंग) योजना के तहत किया गया। इसके तहत कोई कंपनी मुसीबत में है और कर्जों को नहीं चुका पा रही है, तो उसको कुछ रियायतें देकर, कुछ माफ करके, कुछ और वक्त देकर, नए कर्जे दे दिए जाते हैं तथा पुराने कर्जो का समायोजन कर दिया जाता है। कुछ कर्जों के बदले शेयर भी बैंकों को दे दिए जाते हैं। उस कंपनी को जितने बैंकों व संस्थाओं ने कर्जा दिया है सब मिलकर यह फैसला करते हैं। रिजर्व बैंक ने यह योजना 2001 में शुरू की थी और इसके लिए एक प्रकोष्ठ बनाया है।
इस्पात इंडस्ट्रीज के कर्जों का पुनगर्ठन 2003 और 2009 में किया गया था। फिर भी हालत नहीं सुधरी, तब दिसंबर 2010 में जिंदल स्टील वक्र्स के साथ इसका विलय कर दिया गया। उस वक्त इस्पात इंडस्ट्रीज 323 करोड़ रूपये के घाटे में थी। उसके ऊपर 15 कर्जदाता संस्थाओं का 7156 करोड़ रूपये का कर्जा था। इसमें 400 करोड़ का कर्जा डूबत खाते में था। लेकिन इस पूरे दौर में मित्तल बंधुओं के माथे पर शिकन भी नहीं आई और वे बेहिसाब पैसा उड़ाते रहे। 2006 में प्रमोद मित्तल ने करीब 100 करोड़ रूपये में बलगारिया का एक फुटबाल क्लब खरीद लिया। मजदूरांे-कर्मचारियों को वेतन देने के लिए कंपनी के पास पैसा नहीं था। बिजली-पानी का बिल भरने और कच्चा माल खरीदने के लिए भी पैसा नहीं था। लेकिन पूरे वक्त मित्तल बंधु विदेशों में घर, गरम पानी की स्विमिंग पुल, छत पर हेलीपेड और महंगी कारों पर अरबों रूपया लुटाते रहे।
इसी के साथ हाल ही में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्रसिंह को इस्पात इन्डस्ट्रीज द्वारा 2.8 करोड़ रूपये के भुगतान की सीबीआई जांच की खबरों को भी जोड़ लीजिए। ये भुगतान ‘‘वीबीएस’ के नाम से 2009 और 2010 में किए गए थे। वीरभद्र सिंह उस समय केन्द्रीय इस्पात मंत्री थे।
किंगफिशर एयरलाईन्स और उसके मालिक शराब किंग विजय माल्या का मामला खबरों में ज्यादा रहा है। 2005 में स्थापित माल्या की इस कंपनी ने कभी मुनाफा नहीं कमाया। 2010 में कर्जों का पुनर्गठन भी इसका संकट दूर नहीं कर पाया। सितंबर 2012 तक इसका सचित घाटा 8016 करोड़ हो चला था। कंपनी पर तब 13 बैंकों का 13750 करोड़ रूपये कर्जा था। इसके कर्जों के पुनर्गठन की कारवाई फिर चल रही है। अक्तूबर 2012 में सात महीनों से वेतन नहीं मिलने के कारण एक कर्मचारी की पत्नी ने आत्महत्या कर ली। उसी वक्त माल्या के छोटे बेटे ने ट्विटर पर लिखा, ‘‘मैं बिकनी-पहनी माॅडलों के साथ बाॅलीबाॅल खेल रहा हूं।’’ उसके बाद 18 दिसंबर 2012 को अपने जन्मदिन पर विजय माल्या ने तिरूपति जाकर 3 किलो सोना चढ़ाया, जिसकी कीमत करीब एक करोड़ रूपये होती है। गौरतलब यह भी है कि विजय माल्या 2002 से भारत की संसद में राज्यसभा का सदस्य है।
यदि अंबानी की चर्चा नहीं करेंगे तो किस्सा अधूरा रहेगा। मुंबई में 5000 करोड़ रूपये का दुनिया का सबसे महंगा घर ‘‘एंटीलिया’’ बनाने वाले मुकेश अंबानी ने पिछले दिनों अपनी पत्नी नीता का जन्मदिन वहां न मनाकर राजस्थान के राजमहलों में मनाया। मेहमान 32 चार्टर्ड विमानों से आए जिनमें केंद्रीय भारी उद्योग मंत्री, क्रिकेट खिलाडी सचिन तेंदुलकर, फिल्मी हीरो आमिर खान, रणबीर कपूर आदि शामिल थे। इसी अंबानी की रिलायंस कंपनी को भारत सरकार ने पिछले एक साल से प्राकृतिक गैस के दाम बढ़ाकर तगड़ी कमाई का मौका दिया।
बैंको की लूट
एक और खबर पूरे तिलिस्म को समझने में सहायक होती है। यह महत्वपूर्ण खबर कुछ आर्थिक अखबारों व पत्रिकाओं में सिमट कर रह गई। 5 दिसंबर 2013 को चेन्नई में अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ ने एक पत्रकार वार्ता करके पूंजीपतियों द्वारा भारतीय बैंकों की इस विशाल लूट पर सवाल उठाए। संघ ने भारतीय बैंकों (भारतीय स्टेट बैंक, आईडीबीआई और विदेशी बैंक छोड़कर) के सबसे बड़े 50 डिफाल्टरों की सूची जारी की, जिन पर 40,528 करोड़ रूपये का कर्जा फंसा हुआ है। इस सूची में ज्यादातर बड़ी कंपनियां है। केवल चार सबसे बड़ी डिफाल्टर कंपनियों (जिनमें किंगफिशर एयरलाईन्स एक है) पर 22,666 करोड़ रूपये का डूबता हुआ कर्जा है।
संघ ने यह भी बताया कि भारत के सरकारी बैंकों के खराब कर्जों (जिनका समय पर भुगतान नहीं हो रहा है) का आकार बहुत तेजी से बढ़ रहा है। मार्च 2008 में 39,000 करोड़ रूपये से बढ़कर मार्च 2013 में यह 1,64,000 करोड़ रूपये हो चुका है। (हाल ही में जारी रिजर्व बैंक की रपट के मुताबिक अब यह राशि 2,29,000 करोड़ पर पहुंच चुकी है।) इनके अलावा इस अवधि में 3,25,000 करोड़ रूपये के खराब कर्जों का पुनर्गठन करके उन्हें अच्छे कर्जो में बदला गया है। इनमें 83 फीसदी कर्जे बड़ी कंपनियों के हैं। इसका बैंकों के मुनाफों पर भी भारी असर पड़ा है। इन पांच सालों में खराब कर्जों के कारण बैंकों के मुनाफे कुल मिलाकर 1,40,266 करोड़ रूपये कम हो गए। उनमें करीब 40 फीसदी की कमी हो गई। लेकिन यह केवल बैंकों के मुनाफे का सवाल नहीं है, इससे करोड़ों जमाकर्ताओं के हितों का भी सवाल जुड़ा है। ज्यादातर बैंक सरकारी है और यह देश की जनता के पैसे की लूट है। दूसरा खतरा यह है कि चंद कंपनियों पर ये विशाल कर्जे डूबने पर पूरे बैंकिंग उद्योग के लिए संकट पैदा कर सकते है। 2007-08 की वैश्विक मंदी में तो भारतीय बैंक बच गए, लेकिन अब ध्वस्त हो सकते है।
बीमार उद्योग, मस्त उद्योगपति
संघ ने इस प्रचलित कहावत को उद्धृत किया है कि ‘भारत में बीमार उद्योग तो हैं, लेकिन कोई बीमार उद्योगपति नहीं है।’ दरअसल कर्जो के पुनर्गठन के कारण कंपनियों का संकट टलता जाता है और उनके काम को दुरूस्त करने तथा खर्चे कम करने का कोई दबाव नहीं बनता है। बैंकों के प्रबंधन के लिए भी यह आसान रास्ता होता है, क्योंकि इससे उनकी बैलेंस शीट में खराब कर्जों या डूबत कर्जों (नाॅन-परफाॅर्मिंग एसेट या एनपीए) की मात्रा कम हो जाती है। ‘‘कंपनी कर्ज पुनर्गठन’’ के मामले बहुत तेजी से बढ़े हैं। मार्च 2009 में खतम होने वाले वित्तीय वर्ष में 184 मामले थे जिनमें 86,536 करोड़ रूपये की राशि स्वीकृत की गई। 2012-13 में ढ़ाई गुना बढ़कर यह संख्या 401 और राशि 2,29,013 करोड़ रूपये हो गई। चालू वित्तीय वर्ष के केवल प्रथम तिमाही में कर्ज पुनर्गठन के 415 मामले और 2,50,279 करोड़ रूपये स्वीकृत किए गए। दूसरी तिमाही में यह राशि 4,00,000 करोड़ हो गई। स्वयं रिजर्व बैंक के अधिकारियों को इस पर चिंता जाहिर करना पड़ा। उप-गवर्नर के सी चक्रवर्ती को यह कहना पड़ा कि 2008 में चुनाव के पहले करोड़ों किसानों के 50,000 करोड़ रूपये के कर्जे माफ किए गए थे, उसके मुकाबले चंद कंपनियों की यह कर्ज-माफी काफी ज्यादा है।
यहां पर हमारी पूंजीवादी व्यवस्था का दोहरा चरित्र नंगे रूप में सामने आता है। किसान किसी मजबूरी से अपना छोटा सा पच्चीस-पचास हजार का कर्जा नहीं चुका पाता है, तो जलील किया जाता है और खुदकुशी कर लेता है। ये पूंजीपति अरबों रूपये के कर्ज डकारकर अय्याशी की सारी हदें तोड़ते जाते हंै।
इस पूरे खेल में पूंजीपतियों, बैंक अफसरों, नौकरशाहों और राजनेताओं की गहरी सांठगांठ से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इसके पीछे भारत सरकार की वह नीति और इच्छा भी रही है कि येन-केन-प्रकारेण कंपनियों को बचाया जाए व बढ़ाया जाए और इस तरह से राष्ट्रीय आय की ऊंची वृद्धि दर और तेज विकास का भ्रम बनाकर रखा जाए।
भारत के कर्मचारी संगठन अक्सर केवल अपने वेतन-भत्तों की लड़ाई लड़ते रहते हैं। अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ ने भारतीय जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे की इस लूट को उजागर करके देश का भला किया है। ऐसा ही काम उन्हांेने करीब 15 साल पहले किया था। तब भारतीय पूंजीपतियों के एक संगठन ने सरकारी बैंकों के विशाल बकाया कर्जे का हवाला देते हुए तीन बैंकों के निजीकरण की मांग करते हुए मुहिम शुरू की थी। कर्मचारी संघ ने बड़े बकायादारों की सूची निकाल दी और बताया कि इनमें शीर्ष पर उन्हीं पूंजीपतियों की कंपनियां है, जो इस मुहिम को चला रहे है। तब ये पूंजीपति शांत हो गए।
करों में विशाल छूट के तोहफे
दो और जानकारी या खबरें जोड देने से इक्कीसवीं सदी में भारत की पूंजीवादी-नवउदारवादी लूट की तस्वीर पूरी होती है। एक तो वह जिसे पत्रकार पी सांईनाथ बार-बार हमारे ध्यान में लाते हैं। कंपनियों को संकट से राहत देने के नाम पर केन्द्र सरकार साल-दर-साल केन्द्रीय करों में विशाल छूट देती जा रही है। पिछले आठ सालों में मिलाकर केवल चार केन्द्रीय करों में उन्हें 31,88,757 करोड़ रूपये की टेक्स-माफी-छूट के उपहार दिए जा चुके हैं। अन्य तरह के उपहार (जैसे सस्ती जमीन) और राज्य सरकारों द्वारा दी जाने वाली कर-रियायतें इसके अतिरिक्त है।
दूसरी खबर ‘ग्लोबल फाईनेंशियल इंटिग्रिटी’ के स्त्रोत से आई है। दुनिया में धन के अवैध प्रवाह पर नजर रखने वाली यह संस्था है। यह बताती है कि भारत से बाहर जाने वाले दो नंबरी धन का प्रवाह बढ़ता जा रहा है और 2011 में 4,00,000 करोड़ रूपये देश से बाहर गया। यदि 2002 से 2011 के बीच पूरे दशक का मीजान लगाएं तो 15,70,000 करोड़ रूपये अवैध रूप से देश के बाहर गया। 2011 में धन के गैर कानूनी प्रवाह में रूस और चीन के बाद भारत का स्थान दुनिया में तीसरा रहा।
इन सब खबरों और जानकारियों को मिला देने से काफी बातें साफ होती है। पिछले दो दशकों में जिसे भारत की प्रगति, समृद्धि और उभरती हुई आर्थिक ताकत बताया जा रहा था, और भारत की राष्ट्रीय आय की ऊंची वृद्धि दर का जो गुणगान गाया जा रहा था, वह दरअसल कर्जांे और लूट पर खड़ा ताश का महल है। यह ऐसा भ्रष्टाचार है जो वैश्वीकरण और उदारवाद की नीतियों में छिपा है। इसे शायद कोई लोकपाल नहीं पकड़ पाएगा। भारतीय जनता के लगातार बढ़ते कष्टों अभावों और गरीबी के कारण भी इस लूट व डकैती में देखे जा सकते है।
उन्नीसवीं सदी में दादाभाई नोरोजी ने अंग्रेजों द्वारा भारत की लूट पर किताब लिखी थी और वह आजादी के आंदोलन का मुख्या आधार बनी थी। इक्कीसवी सदी में हमारे अपनों द्वारा कई गुना बड़ी इस लूट को कौन रोकेगा, यह चुनौती हमारे सामने है।
लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय महामंत्री एवं सामयिक वार्ता का संपादक है।
पता – ग्राम पोस्ट केसला, तहसील इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.) 461111
मोबाईल नं. 09425040452
ऐसी ही एक खबर दिसंबर में आई। एक प्रवासी भारतीय पूंजीपति ने अपनी बेटी की शादी स्पेन के बार्सीलोना शहर में इतने धूमधाम से की कि यह दुनिया की दूसरी सबसे महंगी शादी बन गई। प्रमोद मित्तल की बेटी सृष्टि की शादी में 505 करोड़ रूपये खर्च हुए। प्रमोद मित्तल दुनिया के सबसे बड़े अमीरों में शामिल लक्ष्मी निवास मित्तल का छोटा भाई है। लक्ष्मी मित्तल की बेटी वनिषा की शादी 2004 में फ्रांस में हुई, वह भी कोई कमजोर नहीं थी। उसमें भी करीब 400 करोड़ रूपये खर्च हुए। प्रमोद की पहली बेटी वर्तिका की शादी 2011 में तुर्की के इस्तंबुल शहर में हुई, वह भी दुनिया की महंगी शादियों में एक है।
ऐसा लगता है कि भाईयों में बेटियों की शादियों में खर्च करने की होड़ चल रही है। लक्ष्मी मित्तल 2004 में तब भी चर्चा में आया जब उसने लंदन में करीब 600 करोड़ रूपये की कोठी खरीदी, जिसे दुनिया के सबसे महंगे घर की पदवी मिली। चार साल बाद उसने अपनी बेटी वनिषा को इससे भी महंगा घर खरीदकर दिया। वह दुनिया की इस्पात की सबसे बड़ी कंपनी ‘‘आर्सलर मिततल’’ का मालिक है।
इतनी खबर मिलने पर कई लोग इसे भारत की बढ़ती समृद्धि, भारतीयों की बढ़ती सफलता, भारतीयों की उद्यमिता आदि का प्रतीक मान सकते हैं और इसे भारत के लिए गौरव का विषय मान सकते हंै। लेकिन एक सहज सवाल उठता है कि यह अनाप-शनाप पैसा आया कहां से ? इसका स्त्रोत क्या है ?
कर्ज लो और अय्याशी करो
एक दूसरी जानकारी जो इस खबर के साथ नहीं आई, से रहस्य की परतें खुलती है। वह यह कि प्रमोद मित्तल और उनकी कंपनी इस देश के बड़े डिफाल्टर कर्जदारों में से एक रहे हैं। अपने भाई विनोद मित्तल के साथ वे 2010 तक इस्पात इंडस्ट्रीज नामक भारत की प्रमुख इस्पात कंपनी के मालिक रहे है। इस कंपनी को भारत के बैंकों और वित्तीय संस्थाओं ने बार-बार विशाल कर्जे दिए, न चुकाने पर माफ किए या उनका नवीनीकरण किया। यह भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अनुमोदित ‘कंपनी कर्ज पुनर्गठन’ (कारपोरेट डेब्ट रिस्ट्रक्चरिंग) योजना के तहत किया गया। इसके तहत कोई कंपनी मुसीबत में है और कर्जों को नहीं चुका पा रही है, तो उसको कुछ रियायतें देकर, कुछ माफ करके, कुछ और वक्त देकर, नए कर्जे दे दिए जाते हैं तथा पुराने कर्जो का समायोजन कर दिया जाता है। कुछ कर्जों के बदले शेयर भी बैंकों को दे दिए जाते हैं। उस कंपनी को जितने बैंकों व संस्थाओं ने कर्जा दिया है सब मिलकर यह फैसला करते हैं। रिजर्व बैंक ने यह योजना 2001 में शुरू की थी और इसके लिए एक प्रकोष्ठ बनाया है।
इस्पात इंडस्ट्रीज के कर्जों का पुनगर्ठन 2003 और 2009 में किया गया था। फिर भी हालत नहीं सुधरी, तब दिसंबर 2010 में जिंदल स्टील वक्र्स के साथ इसका विलय कर दिया गया। उस वक्त इस्पात इंडस्ट्रीज 323 करोड़ रूपये के घाटे में थी। उसके ऊपर 15 कर्जदाता संस्थाओं का 7156 करोड़ रूपये का कर्जा था। इसमें 400 करोड़ का कर्जा डूबत खाते में था। लेकिन इस पूरे दौर में मित्तल बंधुओं के माथे पर शिकन भी नहीं आई और वे बेहिसाब पैसा उड़ाते रहे। 2006 में प्रमोद मित्तल ने करीब 100 करोड़ रूपये में बलगारिया का एक फुटबाल क्लब खरीद लिया। मजदूरांे-कर्मचारियों को वेतन देने के लिए कंपनी के पास पैसा नहीं था। बिजली-पानी का बिल भरने और कच्चा माल खरीदने के लिए भी पैसा नहीं था। लेकिन पूरे वक्त मित्तल बंधु विदेशों में घर, गरम पानी की स्विमिंग पुल, छत पर हेलीपेड और महंगी कारों पर अरबों रूपया लुटाते रहे।
इसी के साथ हाल ही में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्रसिंह को इस्पात इन्डस्ट्रीज द्वारा 2.8 करोड़ रूपये के भुगतान की सीबीआई जांच की खबरों को भी जोड़ लीजिए। ये भुगतान ‘‘वीबीएस’ के नाम से 2009 और 2010 में किए गए थे। वीरभद्र सिंह उस समय केन्द्रीय इस्पात मंत्री थे।
किंगफिशर एयरलाईन्स और उसके मालिक शराब किंग विजय माल्या का मामला खबरों में ज्यादा रहा है। 2005 में स्थापित माल्या की इस कंपनी ने कभी मुनाफा नहीं कमाया। 2010 में कर्जों का पुनर्गठन भी इसका संकट दूर नहीं कर पाया। सितंबर 2012 तक इसका सचित घाटा 8016 करोड़ हो चला था। कंपनी पर तब 13 बैंकों का 13750 करोड़ रूपये कर्जा था। इसके कर्जों के पुनर्गठन की कारवाई फिर चल रही है। अक्तूबर 2012 में सात महीनों से वेतन नहीं मिलने के कारण एक कर्मचारी की पत्नी ने आत्महत्या कर ली। उसी वक्त माल्या के छोटे बेटे ने ट्विटर पर लिखा, ‘‘मैं बिकनी-पहनी माॅडलों के साथ बाॅलीबाॅल खेल रहा हूं।’’ उसके बाद 18 दिसंबर 2012 को अपने जन्मदिन पर विजय माल्या ने तिरूपति जाकर 3 किलो सोना चढ़ाया, जिसकी कीमत करीब एक करोड़ रूपये होती है। गौरतलब यह भी है कि विजय माल्या 2002 से भारत की संसद में राज्यसभा का सदस्य है।
यदि अंबानी की चर्चा नहीं करेंगे तो किस्सा अधूरा रहेगा। मुंबई में 5000 करोड़ रूपये का दुनिया का सबसे महंगा घर ‘‘एंटीलिया’’ बनाने वाले मुकेश अंबानी ने पिछले दिनों अपनी पत्नी नीता का जन्मदिन वहां न मनाकर राजस्थान के राजमहलों में मनाया। मेहमान 32 चार्टर्ड विमानों से आए जिनमें केंद्रीय भारी उद्योग मंत्री, क्रिकेट खिलाडी सचिन तेंदुलकर, फिल्मी हीरो आमिर खान, रणबीर कपूर आदि शामिल थे। इसी अंबानी की रिलायंस कंपनी को भारत सरकार ने पिछले एक साल से प्राकृतिक गैस के दाम बढ़ाकर तगड़ी कमाई का मौका दिया।
बैंको की लूट
एक और खबर पूरे तिलिस्म को समझने में सहायक होती है। यह महत्वपूर्ण खबर कुछ आर्थिक अखबारों व पत्रिकाओं में सिमट कर रह गई। 5 दिसंबर 2013 को चेन्नई में अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ ने एक पत्रकार वार्ता करके पूंजीपतियों द्वारा भारतीय बैंकों की इस विशाल लूट पर सवाल उठाए। संघ ने भारतीय बैंकों (भारतीय स्टेट बैंक, आईडीबीआई और विदेशी बैंक छोड़कर) के सबसे बड़े 50 डिफाल्टरों की सूची जारी की, जिन पर 40,528 करोड़ रूपये का कर्जा फंसा हुआ है। इस सूची में ज्यादातर बड़ी कंपनियां है। केवल चार सबसे बड़ी डिफाल्टर कंपनियों (जिनमें किंगफिशर एयरलाईन्स एक है) पर 22,666 करोड़ रूपये का डूबता हुआ कर्जा है।
संघ ने यह भी बताया कि भारत के सरकारी बैंकों के खराब कर्जों (जिनका समय पर भुगतान नहीं हो रहा है) का आकार बहुत तेजी से बढ़ रहा है। मार्च 2008 में 39,000 करोड़ रूपये से बढ़कर मार्च 2013 में यह 1,64,000 करोड़ रूपये हो चुका है। (हाल ही में जारी रिजर्व बैंक की रपट के मुताबिक अब यह राशि 2,29,000 करोड़ पर पहुंच चुकी है।) इनके अलावा इस अवधि में 3,25,000 करोड़ रूपये के खराब कर्जों का पुनर्गठन करके उन्हें अच्छे कर्जो में बदला गया है। इनमें 83 फीसदी कर्जे बड़ी कंपनियों के हैं। इसका बैंकों के मुनाफों पर भी भारी असर पड़ा है। इन पांच सालों में खराब कर्जों के कारण बैंकों के मुनाफे कुल मिलाकर 1,40,266 करोड़ रूपये कम हो गए। उनमें करीब 40 फीसदी की कमी हो गई। लेकिन यह केवल बैंकों के मुनाफे का सवाल नहीं है, इससे करोड़ों जमाकर्ताओं के हितों का भी सवाल जुड़ा है। ज्यादातर बैंक सरकारी है और यह देश की जनता के पैसे की लूट है। दूसरा खतरा यह है कि चंद कंपनियों पर ये विशाल कर्जे डूबने पर पूरे बैंकिंग उद्योग के लिए संकट पैदा कर सकते है। 2007-08 की वैश्विक मंदी में तो भारतीय बैंक बच गए, लेकिन अब ध्वस्त हो सकते है।
बीमार उद्योग, मस्त उद्योगपति
संघ ने इस प्रचलित कहावत को उद्धृत किया है कि ‘भारत में बीमार उद्योग तो हैं, लेकिन कोई बीमार उद्योगपति नहीं है।’ दरअसल कर्जो के पुनर्गठन के कारण कंपनियों का संकट टलता जाता है और उनके काम को दुरूस्त करने तथा खर्चे कम करने का कोई दबाव नहीं बनता है। बैंकों के प्रबंधन के लिए भी यह आसान रास्ता होता है, क्योंकि इससे उनकी बैलेंस शीट में खराब कर्जों या डूबत कर्जों (नाॅन-परफाॅर्मिंग एसेट या एनपीए) की मात्रा कम हो जाती है। ‘‘कंपनी कर्ज पुनर्गठन’’ के मामले बहुत तेजी से बढ़े हैं। मार्च 2009 में खतम होने वाले वित्तीय वर्ष में 184 मामले थे जिनमें 86,536 करोड़ रूपये की राशि स्वीकृत की गई। 2012-13 में ढ़ाई गुना बढ़कर यह संख्या 401 और राशि 2,29,013 करोड़ रूपये हो गई। चालू वित्तीय वर्ष के केवल प्रथम तिमाही में कर्ज पुनर्गठन के 415 मामले और 2,50,279 करोड़ रूपये स्वीकृत किए गए। दूसरी तिमाही में यह राशि 4,00,000 करोड़ हो गई। स्वयं रिजर्व बैंक के अधिकारियों को इस पर चिंता जाहिर करना पड़ा। उप-गवर्नर के सी चक्रवर्ती को यह कहना पड़ा कि 2008 में चुनाव के पहले करोड़ों किसानों के 50,000 करोड़ रूपये के कर्जे माफ किए गए थे, उसके मुकाबले चंद कंपनियों की यह कर्ज-माफी काफी ज्यादा है।
यहां पर हमारी पूंजीवादी व्यवस्था का दोहरा चरित्र नंगे रूप में सामने आता है। किसान किसी मजबूरी से अपना छोटा सा पच्चीस-पचास हजार का कर्जा नहीं चुका पाता है, तो जलील किया जाता है और खुदकुशी कर लेता है। ये पूंजीपति अरबों रूपये के कर्ज डकारकर अय्याशी की सारी हदें तोड़ते जाते हंै।
इस पूरे खेल में पूंजीपतियों, बैंक अफसरों, नौकरशाहों और राजनेताओं की गहरी सांठगांठ से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इसके पीछे भारत सरकार की वह नीति और इच्छा भी रही है कि येन-केन-प्रकारेण कंपनियों को बचाया जाए व बढ़ाया जाए और इस तरह से राष्ट्रीय आय की ऊंची वृद्धि दर और तेज विकास का भ्रम बनाकर रखा जाए।
भारत के कर्मचारी संगठन अक्सर केवल अपने वेतन-भत्तों की लड़ाई लड़ते रहते हैं। अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ ने भारतीय जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे की इस लूट को उजागर करके देश का भला किया है। ऐसा ही काम उन्हांेने करीब 15 साल पहले किया था। तब भारतीय पूंजीपतियों के एक संगठन ने सरकारी बैंकों के विशाल बकाया कर्जे का हवाला देते हुए तीन बैंकों के निजीकरण की मांग करते हुए मुहिम शुरू की थी। कर्मचारी संघ ने बड़े बकायादारों की सूची निकाल दी और बताया कि इनमें शीर्ष पर उन्हीं पूंजीपतियों की कंपनियां है, जो इस मुहिम को चला रहे है। तब ये पूंजीपति शांत हो गए।
करों में विशाल छूट के तोहफे
दो और जानकारी या खबरें जोड देने से इक्कीसवीं सदी में भारत की पूंजीवादी-नवउदारवादी लूट की तस्वीर पूरी होती है। एक तो वह जिसे पत्रकार पी सांईनाथ बार-बार हमारे ध्यान में लाते हैं। कंपनियों को संकट से राहत देने के नाम पर केन्द्र सरकार साल-दर-साल केन्द्रीय करों में विशाल छूट देती जा रही है। पिछले आठ सालों में मिलाकर केवल चार केन्द्रीय करों में उन्हें 31,88,757 करोड़ रूपये की टेक्स-माफी-छूट के उपहार दिए जा चुके हैं। अन्य तरह के उपहार (जैसे सस्ती जमीन) और राज्य सरकारों द्वारा दी जाने वाली कर-रियायतें इसके अतिरिक्त है।
दूसरी खबर ‘ग्लोबल फाईनेंशियल इंटिग्रिटी’ के स्त्रोत से आई है। दुनिया में धन के अवैध प्रवाह पर नजर रखने वाली यह संस्था है। यह बताती है कि भारत से बाहर जाने वाले दो नंबरी धन का प्रवाह बढ़ता जा रहा है और 2011 में 4,00,000 करोड़ रूपये देश से बाहर गया। यदि 2002 से 2011 के बीच पूरे दशक का मीजान लगाएं तो 15,70,000 करोड़ रूपये अवैध रूप से देश के बाहर गया। 2011 में धन के गैर कानूनी प्रवाह में रूस और चीन के बाद भारत का स्थान दुनिया में तीसरा रहा।
इन सब खबरों और जानकारियों को मिला देने से काफी बातें साफ होती है। पिछले दो दशकों में जिसे भारत की प्रगति, समृद्धि और उभरती हुई आर्थिक ताकत बताया जा रहा था, और भारत की राष्ट्रीय आय की ऊंची वृद्धि दर का जो गुणगान गाया जा रहा था, वह दरअसल कर्जांे और लूट पर खड़ा ताश का महल है। यह ऐसा भ्रष्टाचार है जो वैश्वीकरण और उदारवाद की नीतियों में छिपा है। इसे शायद कोई लोकपाल नहीं पकड़ पाएगा। भारतीय जनता के लगातार बढ़ते कष्टों अभावों और गरीबी के कारण भी इस लूट व डकैती में देखे जा सकते है।
उन्नीसवीं सदी में दादाभाई नोरोजी ने अंग्रेजों द्वारा भारत की लूट पर किताब लिखी थी और वह आजादी के आंदोलन का मुख्या आधार बनी थी। इक्कीसवी सदी में हमारे अपनों द्वारा कई गुना बड़ी इस लूट को कौन रोकेगा, यह चुनौती हमारे सामने है।
लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय महामंत्री एवं सामयिक वार्ता का संपादक है।
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