Tuesday, 28 January 2014

महा बैंक डकैती

महा बैंक डकैती / सुनील

जब खबरें टुकडों में मिलती है तो उनका पूरा अर्थ पता नहीं चलता है। उनको आपस में जोड़ने से पूरा रहस्य खुलता है। वैश्वीकरण के इस जमाने में कारपोरेट बन चुका मीडिया भी कोशिश करता है कि खबरें सनसनी के रूप में ही मिले, समग्रता में नहीं और सच परदे में ही रहे।
ऐसी ही एक खबर दिसंबर में आई। एक प्रवासी भारतीय पूंजीपति ने अपनी बेटी की शादी स्पेन के बार्सीलोना शहर में इतने धूमधाम से की कि यह दुनिया की दूसरी सबसे महंगी शादी बन गई। प्रमोद मित्तल की बेटी सृष्टि की शादी में 505 करोड़ रूपये खर्च हुए। प्रमोद मित्तल दुनिया के सबसे बड़े अमीरों में शामिल लक्ष्मी निवास मित्तल का छोटा भाई है। लक्ष्मी मित्तल की बेटी वनिषा की शादी 2004 में फ्रांस में हुई, वह भी कोई कमजोर नहीं थी। उसमें भी करीब 400 करोड़ रूपये खर्च हुए। प्रमोद की पहली बेटी वर्तिका की शादी 2011 में तुर्की के इस्तंबुल शहर में हुई, वह भी दुनिया की महंगी शादियों में एक है।
ऐसा लगता है कि भाईयों में बेटियों की शादियों में खर्च करने की होड़ चल रही है। लक्ष्मी मित्तल 2004 में तब भी चर्चा में आया जब उसने लंदन में करीब 600 करोड़ रूपये की कोठी खरीदी, जिसे दुनिया के सबसे महंगे घर की पदवी मिली। चार साल बाद उसने अपनी बेटी वनिषा को इससे भी महंगा घर खरीदकर दिया। वह दुनिया की इस्पात की सबसे बड़ी कंपनी ‘‘आर्सलर मिततल’’ का मालिक है।
इतनी खबर मिलने पर कई लोग इसे भारत की बढ़ती समृद्धि, भारतीयों की बढ़ती सफलता, भारतीयों की उद्यमिता आदि का प्रतीक मान सकते हैं और इसे भारत के लिए गौरव का विषय मान सकते हंै। लेकिन एक सहज सवाल उठता है कि यह अनाप-शनाप पैसा आया कहां से ? इसका स्त्रोत क्या है ?
कर्ज लो और अय्याशी करो
एक दूसरी जानकारी जो इस खबर के साथ नहीं आई, से रहस्य की परतें खुलती है। वह यह कि प्रमोद मित्तल और उनकी कंपनी इस देश के बड़े डिफाल्टर कर्जदारों में से एक रहे हैं। अपने भाई विनोद मित्तल के साथ वे 2010 तक इस्पात इंडस्ट्रीज नामक भारत की प्रमुख इस्पात कंपनी के मालिक रहे है। इस कंपनी को भारत के बैंकों और वित्तीय संस्थाओं ने बार-बार विशाल कर्जे दिए, न चुकाने पर माफ किए या उनका नवीनीकरण किया। यह भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अनुमोदित ‘कंपनी कर्ज पुनर्गठन’ (कारपोरेट डेब्ट रिस्ट्रक्चरिंग) योजना के तहत किया गया। इसके तहत कोई कंपनी मुसीबत में है और कर्जों को नहीं चुका पा रही है, तो उसको कुछ रियायतें देकर, कुछ माफ करके, कुछ और वक्त देकर, नए कर्जे दे दिए जाते हैं तथा पुराने कर्जो का समायोजन कर दिया जाता है। कुछ कर्जों के बदले शेयर भी बैंकों को दे दिए जाते हैं। उस कंपनी को जितने बैंकों व संस्थाओं ने कर्जा दिया है सब मिलकर यह फैसला करते हैं। रिजर्व बैंक ने यह योजना 2001 में शुरू की थी और इसके लिए एक प्रकोष्ठ बनाया है।
इस्पात इंडस्ट्रीज के कर्जों का पुनगर्ठन 2003 और 2009 में किया गया था। फिर भी हालत नहीं सुधरी, तब दिसंबर 2010 में जिंदल स्टील वक्र्स के साथ इसका विलय कर दिया गया। उस वक्त इस्पात इंडस्ट्रीज 323 करोड़ रूपये के घाटे में थी। उसके ऊपर 15 कर्जदाता संस्थाओं का 7156 करोड़ रूपये का कर्जा था। इसमें 400 करोड़ का कर्जा डूबत खाते में था। लेकिन इस पूरे दौर में मित्तल बंधुओं के माथे पर शिकन भी नहीं आई और वे बेहिसाब पैसा उड़ाते रहे। 2006 में प्रमोद मित्तल ने करीब 100 करोड़ रूपये में बलगारिया का एक फुटबाल क्लब खरीद लिया। मजदूरांे-कर्मचारियों को वेतन देने के लिए कंपनी के पास पैसा नहीं था। बिजली-पानी का बिल भरने और कच्चा माल खरीदने के लिए भी पैसा नहीं था। लेकिन पूरे वक्त मित्तल बंधु विदेशों में घर, गरम पानी की स्विमिंग पुल, छत पर हेलीपेड और महंगी कारों पर अरबों रूपया लुटाते रहे।
इसी के साथ हाल ही में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्रसिंह को इस्पात इन्डस्ट्रीज द्वारा 2.8 करोड़ रूपये के भुगतान की सीबीआई जांच की खबरों को भी जोड़ लीजिए। ये भुगतान ‘‘वीबीएस’ के नाम से 2009 और 2010 में किए गए थे। वीरभद्र सिंह उस समय केन्द्रीय इस्पात मंत्री थे।
किंगफिशर एयरलाईन्स और उसके मालिक शराब किंग विजय माल्या का मामला खबरों में ज्यादा रहा है। 2005 में स्थापित माल्या की इस कंपनी ने कभी मुनाफा नहीं कमाया। 2010 में कर्जों का पुनर्गठन भी इसका संकट दूर नहीं कर पाया। सितंबर 2012 तक इसका सचित घाटा 8016 करोड़ हो चला था। कंपनी पर तब 13 बैंकों का 13750 करोड़ रूपये कर्जा था। इसके कर्जों के पुनर्गठन की कारवाई फिर चल रही है। अक्तूबर 2012 में सात महीनों से वेतन नहीं मिलने के कारण एक कर्मचारी की पत्नी ने आत्महत्या कर ली। उसी वक्त माल्या के छोटे बेटे ने ट्विटर पर लिखा, ‘‘मैं बिकनी-पहनी माॅडलों के साथ बाॅलीबाॅल खेल रहा हूं।’’ उसके बाद 18 दिसंबर 2012 को अपने जन्मदिन पर विजय माल्या ने तिरूपति जाकर 3 किलो सोना चढ़ाया, जिसकी कीमत करीब एक करोड़ रूपये होती है। गौरतलब यह भी है कि विजय माल्या 2002 से भारत की संसद में राज्यसभा का सदस्य है।
यदि अंबानी की चर्चा नहीं करेंगे तो किस्सा अधूरा रहेगा। मुंबई में 5000 करोड़ रूपये का दुनिया का सबसे महंगा घर ‘‘एंटीलिया’’ बनाने वाले मुकेश अंबानी ने पिछले दिनों अपनी पत्नी नीता का जन्मदिन वहां न मनाकर राजस्थान के राजमहलों में मनाया। मेहमान 32 चार्टर्ड विमानों से आए जिनमें केंद्रीय भारी उद्योग मंत्री, क्रिकेट खिलाडी सचिन तेंदुलकर, फिल्मी हीरो आमिर खान, रणबीर कपूर आदि शामिल थे। इसी अंबानी की रिलायंस कंपनी को भारत सरकार ने पिछले एक साल से प्राकृतिक गैस के दाम बढ़ाकर तगड़ी कमाई का मौका दिया।
बैंको की लूट
एक और खबर पूरे तिलिस्म को समझने में सहायक होती है। यह महत्वपूर्ण खबर कुछ आर्थिक अखबारों व पत्रिकाओं में सिमट कर रह गई। 5 दिसंबर 2013 को चेन्नई में अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ ने एक पत्रकार वार्ता करके पूंजीपतियों द्वारा भारतीय बैंकों की इस विशाल लूट पर सवाल उठाए। संघ ने भारतीय बैंकों (भारतीय स्टेट बैंक, आईडीबीआई और विदेशी बैंक छोड़कर) के सबसे बड़े 50 डिफाल्टरों की सूची जारी की, जिन पर 40,528 करोड़ रूपये का कर्जा फंसा हुआ है। इस सूची में ज्यादातर बड़ी कंपनियां है। केवल चार सबसे बड़ी डिफाल्टर कंपनियों (जिनमें किंगफिशर एयरलाईन्स एक है) पर 22,666 करोड़ रूपये का डूबता हुआ कर्जा है।
संघ ने यह भी बताया कि भारत के सरकारी बैंकों के खराब कर्जों (जिनका समय पर भुगतान नहीं हो रहा है) का आकार बहुत तेजी से बढ़ रहा है। मार्च 2008 में 39,000 करोड़ रूपये से बढ़कर मार्च 2013 में यह 1,64,000 करोड़ रूपये हो चुका है। (हाल ही में जारी रिजर्व बैंक की रपट के मुताबिक अब यह राशि 2,29,000 करोड़ पर पहुंच चुकी है।) इनके अलावा इस अवधि में 3,25,000 करोड़ रूपये के खराब कर्जों का पुनर्गठन करके उन्हें अच्छे कर्जो में बदला गया है। इनमें 83 फीसदी कर्जे बड़ी कंपनियों के हैं। इसका बैंकों के मुनाफों पर भी भारी असर पड़ा है। इन पांच सालों में खराब कर्जों के कारण बैंकों के मुनाफे कुल मिलाकर 1,40,266 करोड़ रूपये कम हो गए। उनमें करीब 40 फीसदी की कमी हो गई। लेकिन यह केवल बैंकों के मुनाफे का सवाल नहीं है, इससे करोड़ों जमाकर्ताओं के हितों का भी सवाल जुड़ा है। ज्यादातर बैंक सरकारी है और यह देश की जनता के पैसे की लूट है। दूसरा खतरा यह है कि चंद कंपनियों पर ये विशाल कर्जे डूबने पर पूरे बैंकिंग उद्योग के लिए संकट पैदा कर सकते है। 2007-08 की वैश्विक मंदी में तो भारतीय बैंक बच गए, लेकिन अब ध्वस्त हो सकते है।
बीमार उद्योग, मस्त उद्योगपति
संघ ने इस प्रचलित कहावत को उद्धृत किया है कि ‘भारत में बीमार उद्योग तो हैं, लेकिन कोई बीमार उद्योगपति नहीं है।’ दरअसल कर्जो के पुनर्गठन के कारण कंपनियों का संकट टलता जाता है और उनके काम को दुरूस्त करने तथा खर्चे कम करने का कोई दबाव नहीं बनता है। बैंकों के प्रबंधन के लिए भी यह आसान रास्ता होता है, क्योंकि इससे उनकी बैलेंस शीट में खराब कर्जों या डूबत कर्जों (नाॅन-परफाॅर्मिंग एसेट या एनपीए) की मात्रा कम हो जाती है। ‘‘कंपनी कर्ज पुनर्गठन’’ के मामले बहुत तेजी से बढ़े हैं। मार्च 2009 में खतम होने वाले वित्तीय वर्ष में 184 मामले थे जिनमें 86,536 करोड़ रूपये की राशि स्वीकृत की गई। 2012-13 में ढ़ाई गुना बढ़कर यह संख्या 401 और राशि 2,29,013 करोड़ रूपये हो गई। चालू वित्तीय वर्ष के केवल प्रथम तिमाही में कर्ज पुनर्गठन के 415 मामले और 2,50,279 करोड़ रूपये स्वीकृत किए गए। दूसरी तिमाही में यह राशि 4,00,000 करोड़ हो गई। स्वयं रिजर्व बैंक के अधिकारियों को इस पर चिंता जाहिर करना पड़ा। उप-गवर्नर के सी चक्रवर्ती को यह कहना पड़ा कि 2008 में चुनाव के पहले करोड़ों किसानों के 50,000 करोड़ रूपये के कर्जे माफ किए गए थे, उसके मुकाबले चंद कंपनियों की यह कर्ज-माफी काफी ज्यादा है।
यहां पर हमारी पूंजीवादी व्यवस्था का दोहरा चरित्र नंगे रूप में सामने आता है। किसान किसी मजबूरी से अपना छोटा सा पच्चीस-पचास हजार का कर्जा नहीं चुका पाता है, तो जलील किया जाता है और खुदकुशी कर लेता है। ये पूंजीपति अरबों रूपये के कर्ज डकारकर अय्याशी की सारी हदें तोड़ते जाते हंै।
इस पूरे खेल में पूंजीपतियों, बैंक अफसरों, नौकरशाहों और राजनेताओं की गहरी सांठगांठ से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इसके पीछे भारत सरकार की वह नीति और इच्छा भी रही है कि येन-केन-प्रकारेण कंपनियों को बचाया जाए व बढ़ाया जाए और इस तरह से राष्ट्रीय आय की ऊंची वृद्धि दर और तेज विकास का भ्रम बनाकर रखा जाए।
भारत के कर्मचारी संगठन अक्सर केवल अपने वेतन-भत्तों की लड़ाई लड़ते रहते हैं। अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ ने भारतीय जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे की इस लूट को उजागर करके देश का भला किया है। ऐसा ही काम उन्हांेने करीब 15 साल पहले किया था। तब भारतीय पूंजीपतियों के एक संगठन ने सरकारी बैंकों के विशाल बकाया कर्जे का हवाला देते हुए तीन बैंकों के निजीकरण की मांग करते हुए मुहिम शुरू की थी। कर्मचारी संघ ने बड़े बकायादारों की सूची निकाल दी और बताया कि इनमें शीर्ष पर उन्हीं पूंजीपतियों की कंपनियां है, जो इस मुहिम को चला रहे है। तब ये पूंजीपति शांत हो गए।
करों में विशाल छूट के तोहफे
दो और जानकारी या खबरें जोड देने से इक्कीसवीं सदी में भारत की पूंजीवादी-नवउदारवादी लूट की तस्वीर पूरी होती है। एक तो वह जिसे पत्रकार पी सांईनाथ बार-बार हमारे ध्यान में लाते हैं। कंपनियों को संकट से राहत देने के नाम पर केन्द्र सरकार साल-दर-साल केन्द्रीय करों में विशाल छूट देती जा रही है। पिछले आठ सालों में मिलाकर केवल चार केन्द्रीय करों में उन्हें 31,88,757 करोड़ रूपये की टेक्स-माफी-छूट के उपहार दिए जा चुके हैं। अन्य तरह के उपहार (जैसे सस्ती जमीन) और राज्य सरकारों द्वारा दी जाने वाली कर-रियायतें इसके अतिरिक्त है।
दूसरी खबर ‘ग्लोबल फाईनेंशियल इंटिग्रिटी’ के स्त्रोत से आई है। दुनिया में धन के अवैध प्रवाह पर नजर रखने वाली यह संस्था है। यह बताती है कि भारत से बाहर जाने वाले दो नंबरी धन का प्रवाह बढ़ता जा रहा है और 2011 में 4,00,000 करोड़ रूपये देश से बाहर गया। यदि 2002 से 2011 के बीच पूरे दशक का मीजान लगाएं तो 15,70,000 करोड़ रूपये अवैध रूप से देश के बाहर गया। 2011 में धन के गैर कानूनी प्रवाह में रूस और चीन के बाद भारत का स्थान दुनिया में तीसरा रहा।
इन सब खबरों और जानकारियों को मिला देने से काफी बातें साफ होती है। पिछले दो दशकों में जिसे भारत की प्रगति, समृद्धि और उभरती हुई आर्थिक ताकत बताया जा रहा था, और भारत की राष्ट्रीय आय की ऊंची वृद्धि दर का जो गुणगान गाया जा रहा था, वह दरअसल कर्जांे और लूट पर खड़ा ताश का महल है। यह ऐसा भ्रष्टाचार है जो वैश्वीकरण और उदारवाद की नीतियों में छिपा है। इसे शायद कोई लोकपाल नहीं पकड़ पाएगा। भारतीय जनता के लगातार बढ़ते कष्टों अभावों और गरीबी के कारण भी इस लूट व डकैती में देखे जा सकते है।
उन्नीसवीं सदी में दादाभाई नोरोजी ने अंग्रेजों द्वारा भारत की लूट पर किताब लिखी थी और वह आजादी के आंदोलन का मुख्या आधार बनी थी। इक्कीसवी सदी में हमारे अपनों द्वारा कई गुना बड़ी इस लूट को कौन रोकेगा, यह चुनौती हमारे सामने है।
लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय महामंत्री एवं सामयिक वार्ता का संपादक है।
पता – ग्राम पोस्ट केसला, तहसील इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.) 461111
मोबाईल नं. 09425040452

Monday, 6 January 2014

पुरोगामी नेत्यांनाही सावित्रीचे विस्मरण

सौजन्य:राही भिडे 

{ज्येष्ट पत्रकार आणि संपादक:पुण्यनगरी}

MONDAY, JANUARY 6, 2014


गेल्या ३ जानेवारी रोजी राष्ट्रसेवा दलाच्या महिलांनी पुणे विद्यापीठावर दुचाकी रॅली काढून ज्ञानज्योती सावित्रीबाई फुले नाव धारण करणारा फलक मोठय़ा उत्साहात, घोषणांच्या गजरात विद्यापीठाच्या प्रवेशद्वारावर लावला आणि चेंडू सरकारच्या कोर्टात टोलवला आहे. 


आता सरकारला जाग केव्हा येते, ते पाहूया.राही भिडेक्रांतिज्योती सावित्रीबाई फुले यांच्या जयंती दिनाचे औचित्य साधून पुणे विद्यापीठाला त्यांचे नाव देण्यात येईल, अशी सर्वांची अपेक्षा होती; परंतु विद्यापीठ अधिसभेचा ठराव होऊनही व्यवस्थापन परिषदेने त्यावर शिक्कामोर्तब करण्यास टाळाटाळ केल्याने हा प्रस्ताव थंड बस्त्यात गुंडाळला जाईल की काय, अशी शंका वाटू लागली. निवडणुका जवळ आल्या की, फुले-आंबेडकर-शाहू महाराजांच्या नावांचा गजर करायचा आणि त्यांचे नाव विद्यापीठाला अथवा अन्य संस्थांना देण्याची वेळ आली की ठाम भूमिका घेऊन उभे राहायचे नाही, समाजामध्ये फूट पाडून मतांचे राजकारण करायचे हे आता लपून राहिलेले नाही. भारतीय संविधानानुसार सरकारने ध्येयधोरणे आखलेली असताना मागे हटण्याचे कारण काय? जातीयतेच्या मानसिकतेतून नेतेही बाहेर पडलेले नाहीत, याचे प्रत्यंतर ३ जानेवारी रोजी सावित्रीबाईंच्या जयंती दिनी आले. महाराष्ट्राच्या समृद्ध, साहित्यिक आणि सांस्कृतिक जीवनाचे दर्शन घडवण्याच्या प्रयत्नात असलेल्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनामध्ये सामाजिक जीवनाचे वास्तव मांडणेदेखील तेवढेच आवश्यक आहे. मात्र संमेलनाने विशेषत: संमेलनात सक्रिय सहभाग असलेल्या राजकारण्यांनी सामाजिक भान ठेवून भूमिका मांडणे अपेक्षित असताना त्यांनी उद््घाटनाच्या सोहळय़ात सावित्रीबाईंचे नावही घेऊ नये, याचे आश्‍चर्य वाटले. त्यामुळे काँग्रेस-राष्ट्रवादी आघाडी सरकारची ३ जानेवारीला नामकरण करण्याची खरोखर इच्छा होती का? हाही प्रश्न उभा राहतो. सरकारने नामकरणाचा आग्रह धरला असता तर कदाचित व्यवस्थापन परिषदेने तो ठराव शासनाकडे पाठवला असता; परंतु परिषदेने ठराव पाठवला नसल्यामुळे शासनाला पळवाट मात्र काढता आली. खरे तर पुरोगामी महाराष्ट्राचा वारसा चालवत असल्याचा आव आणणार्‍या राजकीय नेत्यांपासून साहित्यिक आणि लेख, कवींच्याही पुरोगामी निष्ठा तपासण्याची वेळ आली आहे. 

महाराष्ट्रातील पुरोगामी विचारांच्या प्रत्येक माणसाला सासवड येथे सावित्रीबाईंच्या जन्मदिनी सुरू झालेल्या अधिवेशनात नामविस्ताराची चर्चा मान्यवरांनी करणे अपेक्षित होते. सावित्रीबाईंच्या जन्मदिनी संमेलन सुरू होणार असल्याने अपेक्षा उंचावल्या होत्या. मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण हे संमेलनाच्या विचारपीठावर ही घोषणा करतील असे वाटले होते. प्रत्यक्षात विद्यापीठ नामविस्ताराची घोषणा सोडा, सावित्रीबाईंचा साधा उल्लेखही कोणी केला नाही आणि मुख्यमंत्री तर तिकडे फिरकलेही नाहीत. उद््घाटनाच्या मंडपात सावित्रीबाईंचा फोटोदेखील नव्हता. मग हार कुठून असणार. फोटो लावून हार घालण्याचे सौजन्यही दाखवले नाही. सर्व वक्त्यांनी आचार्य अत्र्यांच्या मूळ गावी सासवड मुक्कामी संमेलन असल्यामुळे अत्र्यांचा महिमा सांगितला, ते योग्य होते; परंतु त्यांच्याच तालुक्यात सासर असलेल्या सावित्रीबाईंना मात्र अनुल्लेखाने मारले. पुरंदर तालुक्यातील खानवडी हे जोतिबा फुल्यांचे गाव आहे. महाराष्ट्रातील ज्येष्ठ पुरोगामी नेते असा ज्यांचा सतत उदोउदो केला जातो, त्या शरद पवारांनी उद्घाटकाची महत्त्वपूर्ण जबाबदारी पार पाडताना तरी सावित्रीबाईंचे स्मरण करावयास हवे होते. सावित्रीच्या लेकींसाठी महिला सबलीकरणाचे धडे देत फिरणार्‍या बारामतीच्या खासदार सुप्रिया सुळे यांनाही आपल्या भाषणात सावित्रीचे विस्मरण झाले. 

पुरोगामी चळवळीतील ज्येष्ठ कवी आणि मराठवाडा विद्यापीठ नामांतराच्या चळवळीत सहभाग घेणारे तसेच 'आई' कवितेने आपल्या संवेदनशील मनाची साक्ष देणारे साहित्य वतरुळातील प्रतिष्ठेचे संमेलनाध्यक्षपद भूषवणारे 'आई'फेम फ. मुं. शिंदेही सावित्रीमाईंना विसरले. पवारांनी तर नाहीच; पण फ.मुं.नीदेखील छत्रपती शिवाजी महाराज, फुले-शाहू-आंबेडकर यांचा नामोल्लेख टाळला. त्यांनी अन्य कोणत्याही नेत्याचे नाव घेतले नसते तर प्रश्न उभा राहिला नसता; परंतु स्वातंत्र्यवीर सावरकर आणि वल्लभभाई पटेल यांचा उल्लेख करून फ.मुं.नी 'नमो'ची भाषा केली हेच दिसून आले. स्वत:च्या पुरोगामीत्वाचा डंका पिटणार्‍या संमेलनाध्यक्षांनी सामाजिक भान ठेवण्याऐवजी मैफलीत बसल्यासारखे उथळ कोट्य करणेच पसंत केले. मैफलीत बसल्यावर आपल्याच साहित्य कृतींवर सोबत्यांना टाळय़ा देणार्‍यांनी पवारांच्या हातावर टाळी दिली नाही हे संमेलन आयोजकांचे नशीबच म्हणायचे. दुसरी महत्त्वाची गोष्ट अशी की, ज्या संमेलनात संवैधानिक पदे भूषवणारे राज्यपाल डी. वाय. पाटील होते, केंद्रीय कृषीमंत्री शरद पवार होते, तिथे संविधानाचा आणि आपल्या राष्ट्रीयत्वाचा मान ठेवण्यासाठी राष्ट्रगीत होणे आवश्यक होते. पसायदान झाले हे संमेलनातील सारस्वतांच्या भावनेचा आदर होता असे समजू शकते. पण राष्ट्रगीत होऊ नये याचे सर्मथन कसे होईल. संमेलनातील मान्यवरांचा वैचारिक गोंधळ उडाला की काय अथवा त्यांनी जाणीवपूर्वक काही गोष्टींकडे दुर्लक्ष केले कीकाय, असा संभ्रम निर्माण झाला. सावित्रीबाईंचा नामोल्लेख टाळला आणि डॉ. नरेंद्र दाभोळकरांच्या हत्येचा निषेधही केला नाही. पुरोगामित्वावरील निष्ठा ठामपणे व्यक्त करण्याची नामी संधी या सर्वांनी का दवडली, त्यांना कोणत्या शक्तींनी आणि प्रवृत्तींनी मागे खेचले हा संशोधनाचा विषय आहे. 

रिपब्लिकन नेते रामदास आठवले हे हिंदुत्वावाद्यांसोबत गेल्यामुळे त्यांना सतत आपले पुरोगामित्व सिद्ध करावे लागत आहे. संमेलनाचे मोठे स्टेज मिळाल्यामुळे ते कदाचित पुणे विद्यापीठ नामांतर अथवा दाभोळकरांची हत्या हे विषय बोलतील म्हणून त्यांना भाषणाची संधीच दिली नाही, याचा वचपा काढण्यासाठी आणि दाभोळकरांच्या हत्येचा निषेध करण्यासाठी रिपाइं कार्यकर्त्यांनी दुसर्‍या दिवशी संमेलनावरच मोर्चा काढला. पुणे विद्यापीठाला सावित्रीबाईंचे नाव देण्यासाठी १९९६-९७ सालापासून जोर धरण्यात आला. आंबेडकरी संघटना तसेच डाव्या पुरोगामी संघटनांना नामांतरासाठी मोर्चे, धरणे, निदर्शने करावी लागली. हळूहळू सर्व बहुजनांना जाग येऊ लागली, मराठा सेवा संघ, मराठा महासंघ, बहुजन शिक्षक संघ, सत्यशोधक संघटना, ओबीसी संघटना या सर्वांनी ही मागणी लावून घरली. त्यानंतर २000 साली 'ज्ञानज्योती सावित्रीबाई फुले विद्यापीठ पुणे' नामकरण कृती समितीची स्थापना प्रा. गौतम बेंगाळे यांनी केली. महाराष्ट्रातील विविध राजकीय पक्षांसह अनेक संघटनांचे प्रतिनिधी या कृती समितीमध्ये कार्यरत आहेत. या आंदोलनाची दखल घेऊन विद्यापीठ अधिसभेने २६ ऑक्टोबर, २0१३ रोजी 'ज्ञानज्योती सावित्रीबाई फुले पुणे विद्यापीठ' असा नामविस्तार करण्याच्या ठरावास मंजुरी दिली; परंतु विद्यापीठ व्यवस्थापन परिषदेने या विषयासंदर्भात बैठक लावली नसल्यामुळे नामविस्ताराचा घोळ कायम राहिला आहे. दरम्यान, नामविस्ताराला काही ओबीसी संघटनांनी विरोध दर्शविला असून, नामकरणात 'पुणे' शब्द नसावा, असा आग्रह धरला आहे तर राष्ट्रसेवा दलासारख्या पुरोगामी संघटनांनी नामविस्ताराला आक्षेप नसल्याचे स्पष्ट केले आहे. पुणे ही केवळ पेशव्यांची, प्रतिगामी ब्राह्मणांची तसेच सनातन्यांची जहागीर नसून, पुणे हे जोतिबांचे आहे, सावित्रीचे आहे, पुरोगामी चळवळीचे केंद्र आहे, या शहराला प्रबोधनाचा वारसा आहे, उलट सावित्रीबाईंचे नाव पुणे विद्यापीठाला दिले तर पुण्याची सनातनी पेशवाई आणि प्रतिगामी ही ओळख पुसली जाईल, त्यामुळे 'पुणे' नाव लावण्यासंबंधीचा मुद्दा उपस्थित करून नामविस्तार प्रक्रिया लांबवण्याचा छुपा अजेंडा राबवला जात आहे की, काय अशी शंका येते. त्यामुळे आंदोलनाची तीव्रता वाढविली जात आहे. गेल्या ३ जानेवारी रोजी राष्ट्रसेवा दलाच्या महिलांनी पुणे विद्यापीठावर दुचाकी रॅली काढून ज्ञानज्योती सावित्रीबाई फुले नाव धारण करणारा फलक मोठय़ा उत्साहात, घोषणांच्या गजरात विद्यापीठाच्या प्रवेशद्वारावर लावला आणि चेंडू सरकारच्या कोर्टात टोलवला आहे. आता सरकारला जाग केव्हा येते ते पाहूया. नामविस्ताराने विद्यापीठाचा दर्जा सुधारणार आहे का? असा प्रश्न विचारून खोडा घालण्याचा प्रय▪काही हितसंबंधी मंडळी करत आहेत. नामविस्ताराने विद्यापीठाचा दर्जा सुधारणार नसेलही; पण येथील प्रतिगाम्यांनी एकविसाव्या शतकातही 'जुनं तेच पुणं' ही जी पुण्याची प्रतिमा केली आहे, ती नक्कीच पुसली जाईल.

Friday, 6 December 2013

Nelson Mandela,


Nelson Mandela, former president of South Africa and Nobel Peace Prize winner, has died. During his long life, Mandela inspired countless individuals. Here is a collection of quotes that personify his spirit:
1) "Difficulties break some men but make others. No axe is sharp enough to cut the soul of a sinner who keeps on trying, one armed with the hope that he will rise even in the end."
2) "It always seems impossible until it's done."
3) "If I had my time over I would do the same again. So would any man who dares call himself a man."
4) "I like friends who have independent minds because they tend to make you see problems from all angles."
SOUTH AFRICANS ON MANDELA: 'He is the person who saved this country'
5) "Real leaders must be ready to sacrifice all for the freedom of their people."
6) "A fundamental concern for others in our individual and community lives would go a long way in making the world the better place we so passionately dreamt of."
7) "Everyone can rise above their circumstances and achieve success if they are dedicated to and passionate about what they do."
8) "Education is the most powerful weapon which you can use to change the world."
9) "I learned that courage was not the absence of fear, but the triumph over it. The brave man is not he who does not feel afraid, but he who conquers that fear."
10) "For to be free is not merely to cast off one's chains, but to live in a way that respects and enhances the freedom of others."
11) "Resentment is like drinking poison and then hoping it will kill your enemies."
12) "Lead from the back — and let others believe they are in front."
13) "Do not judge me by my successes, judge me by how many times I fell down and got back up again."
14) "I hate race discrimination most intensely and in all its manifestations. I have fought it all during my life; I fight it now, and will do so until the end of my days."
15) "A good head and a good heart are always a formidable combination."

Saturday, 23 November 2013

कोसला लिहून झाली, त्याची गोष्ट!

http://maharashtratimes.indiatimes.com/articleshow/26276899.cms
Maharashtra Times, Sanwad, Sunday, 24 nOV.2913

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भालचंद्र नेमाडे 

मराठीतली अद्वितीय कादंबरी 'कोसला' पन्नास वर्षांची झाली तरी तिचं गारुड मराठीमनावरून दूर झालेलं नाही. तिची २२वी आवृत्ती येत्या आठवड्यात पॉप्युलर प्रकाशनतर्फे प्रसिद्ध होत आहे. त्यात खुद्द नेमाडे यांचं मनोगत अंतर्भूत केलं आहे. त्यातला हा वेचक भाग- 

आमचे मित्र रा. अशोक शहाणे पुण्यात रा. ज. देशमुख ह्या मगरूर, धुरंधर प्रकाशकांकडे काहीतरी कामासाठी राहायचे. त्यामुळे ह्या काका देशमुखांकडे जाणं व्हायला लागलं. काका मूळ मराठवाड्यातले आणि गरिबीतून वर आल्यानं त्यांचं खेड्यातल्या संस्कृतीवर प्रेम होतं. त्यामुळे की काय माझ्यावर ते पोटच्या मुलासारखं प्रेम करायचे. सुलोचनामावशी देशमुख ह्याही फार प्रेमळ होत्या. मी परीक्षा नीट देत नाही आणि हे लिटल मॅगझीनसारखे कानफाटे उद्योग करण्यात वेळ घालवतो, हे मावशींना बिलकूल आवडत नव्हतं. मी परीक्षेला न बसता पुण्याला एकदा गेलो तेव्हा नेमकं पुण्यात भरलेल्या पहिल्या प्रकाशक परिषदेत काका देशमुखांची प्रस्थापित लेखकांनी जाहीर बदनामी केली होती- ते लेखकांना रॉयल्टीत फसवतात, शिवाय वरतून शिरजोरी करतात वगैरे. त्यामुळे आपण आता काही तरी धडाक्यात छापून ह्या लघुकथा लिहिणाऱ्या टिनपाट लेखकांना त्यांची जागा दाखवून दिली पाहिजे, असं काका देशमुखांना तीव्रतेनं वाटलं. रणांगण ह्या त्यांनीच पूर्वी प्रकाशित केलेल्या कादंबरीनंतर मराठीत चांगली कादंबरी झालीच नाही, ह्या आमच्या मताशी ते गुप्तपणे सहमत असावेत. कारण मध्यंतरी लघुकथावाल्यांचं पेव फुटल्यानं कादंबरी लिहिण्याची संस्कृतीच नष्ट झाली- म्हणजे अभ्यास करणं, निदान लिहिण्याचे तरी दीर्घकाळ कष्ट घेणं वगैरे. आमच्या मते एकंदरीत मराठी साहित्याचं पुणे-मुंबईचे लोक समजतात तसं बिलकूल बरोबर चाललेलं नव्हतं. आमच्या अशा अद्वातद्वा चर्चा उपसणं काका देशमुख आणि सुलोचनामावशी दोघांनाही पटायच्या. ह्या लघुकथालेखकांवर असं एक गंभीर समीक्षेचं पुस्तक लिहिशील, तर आपण छापू असंही एकदा ते म्हणाले. रा. अशोक शहाणे यांनी त्यांना सांगितलं होतं की, आमच्या मित्रांपैकी तुम्हाला पाहिजे तशी कादंबरी लिहू शकतील असे भाऊ पाध्ये आणि नेमाडे हे दोघेच आहेत. एकदा भाऊ पाध्ये यांनाही देशमुखांनी पुण्याला बोलावून घेतलं. पण त्यांचं फार जमलं नाही. 

त्या वेळी त्यांच्याकडे भाऊसाहेब खांडेकर, पु. ल. देशपांडे, रणजित देसाई अशा मातब्बर लेखकांचा राबता असे. देशमुख आणि कंपनी प्रकाशनाचे हे मोठे लेखक समजले जात. पण आम्ही मित्रमंडळी मात्र त्यांच्या लिहिण्यावर वैतागलेले होतो. यांचं नुकतंच प्रसिद्ध झालेलं पुस्तक तिथेच समोर असायचं, ते घेऊन वाचता वाचता सगळं कसं कृत्रिम, जुनाट आहे हे दाखवत हसायचो. काका आणि सुलोचनामावशी दोघांनाही हे गुप्तपणे आवडत असावं. मग चिडून काका म्हणायचे, असं मोठमोठ्या लेखकाची टिंगलटवाळी करणं सोपं आहे. एक तरी असं तुम्ही लिहून दाखवा. मी एकदा म्हणालो, खांडेकरांसारखी कादंबरी आठेक दिवसात सहज लिहिता येईल. काका म्हणाले, लिहून दाखव. बकवास पुरे. मी म्हणालो, लिहीनही काका, पण आमचं कोण छापणार? ह्यावर ते म्हणाले, तू कादंबरी लिही. तू लिहिशील तशी मी छापतो. असं भरीला पाडून त्यांनी माझ्याकडून लिहितो हे कबूल करून घेतलं. मलाही वाटलं चांगली कादंबरी लिहिता येईल की नाही कुणास ठाऊक, पण कशी लिहू नये हे तर आपल्याला चांगलंच कळतं. मग काका म्हणाले, आता नाहीतरी तू परीक्षा न देताच घरी बसायचं ठरवलं आहेस, तर राहा इथेच. वर भाऊसाहेबांच्या खोलीत राहा. उद्यापासून सुरुवात कर. तुला काय लागेल ते कागद, पुस्तकं, कुठे गावात फिरून येणं, इडली-डोसा, चहा, सिग्रेटी जे सांगशील ते मिळत जाईल. कर सुरू. 

मला दुसरेच स्वतःचे प्रश्न सोडवायचे होते. होस्टेल रिकामं करायचं होतं. पुस्तकं, नोट्स, चंबूगबाळं आवरून ह्यापुढे नको शिकणं, न् परीक्षा न् एम. ए. मुंबई कायमची सोडायची म्हटल्यावर सतरा भानगडी करून आपल्या आपल्या घरी सांगवीला कायमचं राहायला जायचं. 

अतिशय उद्विग्न मनःस्थितीत मी गावी आलो. गावात आणि आमच्या नातेवाईकांमध्ये सर्वत्र ही मोठी बातमीच झाली. घरातल्या लहानमोठ्या सगळ्यांचे कष्टाचे पैसे खर्च करून इतकी वर्षं शहरात राहून याला साधी परीक्षा पास होता आलं नाही. गावातली शेंबडी पोरंही नोकऱ्या मिळवून परदेशात गेली, शिकली आणि हा घरबुडव्या एकुलता मुलगा शेवटी म्हशी चारायला परत आला. एकूण दहा हजार वर्षं जोपासलेली आपली कृषिसंस्कृती तोडून स्वातंत्र्योत्तर शेतकऱ्यांना आता आपली ह्यापुढची पिढी शेतीत नको, असा युगधर्म झाला होता. त्या भयंकर कडक उन्हाळ्यात पूर्ण टाकून दिल्यासारखा मी दिवस काढत होतो. गावात मित्रमंडळीही नाही. घरातल्यांनी कामापुरतं बोलणं. वडलांशी निरूत्तर करणारे संतप्त वाद. खर्चाला पैसे मागायची सोय नाही. रांधलेलं झाकून ठेवलेलं स्वतः वाढून खाणं, कारण मृग लागला आणि सगळे शेतात जायला लागले. चहा स्वतः करून घेणं. आपण ह्या वयात निरूपयोगी जगत आहोत, ह्या सर्व बाजूंनी टोचण्या. अत्यंत क्षुब्ध मनोवस्था. आपली ही दुर्दशा कशामुळे झाली? आपण ह्या स्पर्धेच्या युगात टिकून राहायला असमर्थ आहोत काय? आपलं कुणाशीच कसं जुळत नाही? प्रचंड अस्वस्थता. कोंडी. घालमेल. 

मग सातपुड्याच्या उंच रांगांवर ढगांची गर्दी. पाऊस. गावाभोवतीच्या दोन्ही नद्यांना पूर. करडा आसमंत संपून हिरवा परिसर. वातावरण काहीतरी करायला प्रेरक. तशात पुण्याहून पोस्टानं देशमुख आणि कंपनीच्या रुंद पाकिटांमधून रा. अशोक शहाणे यांची भयंकर दिवसाआड स्फूर्तिदायक पत्रं की, कादंबरी सुरू केलीस काय? कधी सुरू करणार? काका, इकडे वाट पाहताहेत. यंदा सरकारी बक्षिसांसाठी पाठवण्यासारखं आमचं एकही नीट पुस्तक नाही. काका-मावशी अस्वस्थ आहेत. काहीतरी कर. 

लिहिण्याचा आत्मविश्वास माझ्याकडे नको तितका होताच. लिहिणं हा माझा लहानपणापासूनचा स्वतःचा तोल सावरण्याचा आधारही होता. आमच्या गावात वाचनसंस्कृती उत्तम होती. गांधीवादी पुढाऱ्यांचा प्रभाव होता. एक उत्तम ग्रंथालय होतं. गावगाड्यातल्या कृषिप्रधान मौखिक परंपरा सगळ्या प्रकारच्या आणि अत्यंत समृद्ध लोकसाहित्य, तमाशे अप्रतिम, गावात महानुभाव आणि वारकरी संप्रदायांची वर्षभर पोथ्या, पुराणं, अभंग, भजनं, कीर्तनं आणि तेलीबुवांकडे दर आषाढात लागणाऱ्या महाभारत वगैरे पोथ्या, शिवाय सुटीत मित्रांबरोबर सायकलींवरून अजिंठ्याची लेणी पाहायला जायचो- एकंदरीत चांगलं लिहू म्हणणाऱ्याला यांच्यापेक्षा आणखी कोणता वैश्विकतेचा वारसा असायला पाहिजे? 

घरात होते नव्हते तेवढे जुनाट पिवळे कागद, दौत, टोच्या, सुतळी, गंजलेल्या टाचण्या, पारदर्शक टाकीचा स्वस्तातल्या निबचा फाउंटन पेन- शाई संपत आली की दिसते म्हणून कादंबरीसाठी बहुमोल असा, माझी आवडती चारमिनार सिग्रेट गावात मिळत नव्हती म्हणून मिळायची ती पीला हत्ती- ह्यामुळेच मी कधीही तंबाखूविरुद्ध बोलत नाही, कारण ते कृतघ्नपणाचं ठरेल. तंबाखूशिवाय मला असं लिहिताच आलं नसतं. 

रात्री केव्हातरी शिडीवरून खाली उतरायचं- जे बऱ्याचदा प्रतीकात्मक वाटत होतं. वीस पावलांवर राहत्या घरी पटकन जाऊन यायचं. भूक त्या दिवसात रोज आणि फार लागतच नव्हती, लागली तर किंवा तेव्हा चुलीजवळ दुरडीत झाकून ठेवलेलं जे असेल ते खायचं, तरी शरीर तलवारीसारखं तल्लख असायचं. रात्री केव्हाही चहाची व्यवस्था खोलीवरच केली होती. तीव्र एकाग्रतेनं शरीराचा ताबा घेतला. आपण काय लिहितो आहोत, हे तळहातावरच्या आवळ्यासारखं स्पष्ट दिसत होतं, पण का लिहीत आहोत याचं कारण स्वतःत शिरूनच सापडण्यासारखं होतं. आतल्या आत ओसंडणाऱ्या चोवीस वर्षांच्या आशयद्रव्यात परत जाण्याची अवस्था. 

आत्मचरित्र हा वाङ्मयप्रकार तर मला साहित्याशी अजिबात संबंधित वाटत नव्हता. म्हणजे आपल्याला जे सांगायचं आहे, त्याची मुळं आपल्या जगण्याच्या आणि जगाच्या संयोग रेषेवर शोधावी लागतील. ही रेषा केवळ जाणिवेत सलग अशी सापडत नाही, ती बरीच नेणिवेत दडलेली असते. कविता करताना मला असा संघर्ष कधीही जाणवला नव्हता. ती आपल्या नेणिवेतच संपूर्ण संरचित होऊन येते, उलट ती जाणिवेचा पूर्ण ताबा घेते, स्वतःच भाषेवर आपला सांगाडा लादते. पण कादंबरीत जाणीव आणि नेणीव यांच्यातला हा संवाद (खरं तर कोसलाच्या आशयद्रव्यात वाढत जाणारा विसंवाद) भाषेत मांडण्याची प्रक्रिया बारीकसारीक तपशिलाच्या निवडीनुसार आपोआप नियंत्रित व्हायला लागली. होणाऱ्या कादंबरीची अस्पष्ट धुगधुगी जाणवायला लागली. आपल्याला दिवस गेले- गरोदर राहाण्याची भावना -स्थळकाळ एकवटून योगातल्या प्रदीर्घ समाधीसारखे संपूर्ण अंतर्मुख असे नित्यानंदात ह्यानंतरचे पंधराएक दिवस. 

२४ ऑगस्ट १९६३ रोजी मी लिहायला बसलो आणि रात्रंदिवस लिहीत १० सप्टेंबर १९६३ रोजी पहिला खर्डा संपवला. मागे दुर्गा भागवत यांना आमच्याकडच्या महार भगत गोसावी लोकांची लोकगीतं मी जमा करून पाठवीन म्हणून कबूल केलं होतं, ते लोक नेमके मध्येच दोनतीनदा आल्यानं तीनेक दिवस वाया गेले - अर्थात याचाही उपयोग कोसलाच्या शेवटच्या भागात झालाच, कादंबरीकाराचं काहीच वाया जात नाही. 

तर हा पहिला खर्डा फक्त मलाच कळेल असा शाॅर्ट हॅण्डसारखा होता. तो अजूनपर्यंत तिकडे नीट बांधून ठेवला होता. माझे एक कट्टर वाचक रा. सुनील चव्हाण यांना तो कसातरी बांधलेला खर्डा पाहून उचंबळून आलं आणि त्यांनी ताबडतोब चंदनाची पेटी आणून त्यात तो ठेवायला सांगितलं. लिहिण्याच्या दिवसांत रा. ज. देशमुखांचा तगादा चालूच होता, त्यामुळे सलग नऊ दिवस-रात्री तो खर्डा घाईघाईतच पक्का केला आणि १९ सप्टेंबर रोजी गावातल्या एका जुन्या वर्गबंधूच्या ट्रकवर हा पक्का खर्डा घेऊन पुण्यात आलो. रा. अशोक, काका आणि मावशी इतके उत्साहात होते की, मी काय लिहिलं हे त्यांचं कुतूहल पाहाण्यासारखं होतं. लगेच वीस आणि एकवीस सप्टेंबर रोजी पूर्ण वेळ मी ह्या तिघांमध्ये बसून संपूर्ण कादंबरी वाचून दाखवली. कोसलाचे पहिले वाचक. काका मधे मधे एखाद्या निरीक्षणावर किंवा वाक्यावर बेसुमार खूष होऊन दाद देत होते. 

मग मी आणि अशोक जागरणं करत मुद्रणप्रत करायला लागलो. त्यावेळी कथाकादंबऱ्या छापल्या जायच्या, त्यातले बरेच प्रकार टाळून - उदाहरणार्थ, सबंध कादंबरीत कुठेही एकही उद्गारवाचक! येता कामा नये, अवतरणचिन्हांची लुडबूड कुठेही नको - अशा चारपाच जनरल सूचना सुरुवातीलाच टाकल्या. हे वैताग काम आम्ही २४ सप्टेंबर ते ७ ऑक्टोबर १९६३ मध्ये संपवलं. 

दसऱ्याच्या दिवशी संध्याकाळी काकांनी स्वतः नवा पायजमा सदरा घालून मला टोपी घालायला लावली आणि घरातल्या देव्हाऱ्यासमोर देवापुढे मुद्रणप्रत ठेवून पूजा केली आणि चल म्हणाले. लाटकर वाट पाहताहेत आपली. कल्पना मुद्रणालयात शिरलो तेव्हा काका म्हणाले, हा आमचा नवा घोडा. मालक लाटकर म्हणाले, आजच सुरू करतो, दोन दिवसात गॅली प्रुफं येतील ती तातडीनं पाहून देत गेला तर आठ दिवसांत छापून होईल. 

गावी विचित्र अवस्थेत परत आलो. आपल्याला पाहिजे तसं निर्विघ्न लिहून, पाहिजे तसं ओळ न् ओळ छापून झालं. आतलं अगदी आतलं दुःखसुद्धा आपण आता भाषेतून दुसऱ्यांना वाटून टाकलं - वाटलं ते वाटलं. जवळ काहीही शिल्लक ठेवलं नाही. पूर्ण नागडे होऊन गेलो आहोत. ह्याच ग्लानीत दिवस चालले. घरात टिकाव लागणं दिवसेंदिवस कठीण होत गेलं. आणि पूर्ण उलट्या दिशेनं विचार दौडू लागले. 

काही झालं की आपण दरवाजा केवळ आत ओढूनच उघडतो. अशा आत्मघातकी नैतिकतेमुळे आपण स्वतःला स्थानबद्ध करतो आहोत. तो बाहेर ढकलूनही उघडेल अशी जगावर अतिक्रमण करत जगण्याची नैतिकता हुडकली पाहिजे. आक्रमण आजच्या स्पर्धेच्या सभ्यतेत टिकून राहण्याचा हा मध्यवर्ती संघर्ष कोसलात मी सोडवला होताच. नवं आयुष्य सुरू करणं आणि घराच्या बाहेर काढता पाय घेणं याचीच तर सगळे तरुणांकडून अपेक्षा करताहेत. पैसेही घरून नाही घेतले तर आता चालणार होतं, कादंबरीचे भरपूर होतील. परीक्षा नीट आटोपून इंग्रजी शिकवायची नोकरी मिळणं कठीण नव्हतं. चला कोसलापूर्व पर्वाला रामराम. नवं आयुष्य. परकाया प्रवेश.

सावित्री माई फुले विद्यापीठ , पुणे : काही मुलभूत मुद्दे

http://drabhiram.blogspot.in/2013/11/blog-post_23.html

Saturday, November 23, 2013








सावित्री माई फुले विद्यापीठ , पुणे : काही मुलभूत मुद्दे 

१) सावित्रिमाइंचे नाव पुणे विद्यापीठाला देणे हि एक उत्तम गोष्ट आहे . शिक्षणाचि ठेकेदारी चालणार नाही . स्त्री शुद्रांसकट सर्व समाजाला शिक्षण मिळाले तर त्याला काही अर्थ आहे । ज्योतिरावांचा हा मुलभुत विचार प्रत्यक्षात उतरवण्यासाठी दगड जिने खाल्ले त्या - माइचे - आईचे - गाव पुणे आहे आणि त्यात तिच्याच नावाचे विद्यापीठ हि होणार आहे . हि एक चांगली गोष्ट आहे .

२) मुळात या मागणीला कोणीही जवाबदार व्यक्ती किंवा संघटनेने विरोध केलेला नाही . तरीही नाम विस्ताराचे झेंगट कोणि पुढे आणले ? सावित्रीमाई फुले पुणे विद्यापीठ, पुणे हि द्विरुक्ती हास्यास्पद वाटते . त्यामुळे नाम विस्ताराची गरज नाही . सावित्री माई फुले विद्यापीठ हेच नाव योग्य आहे.



३) या नामांतराला ब्राह्मणांनि विरोध केलेला नाही. . . ते ठीकच . पण केवळ राजकीय अनुत्साह म्हणुन विरोध न करणे वेगळे आणि फ़ुलेंचे महत्व समजून या नामांतराला पाठिंबा देणे वेगळे . फक्तच ब्राह्मणच म्हणुनच जातीयच हिताचाच विचारच करायचाच झालाच तरच ……………. उत्तर पेशवाईत ब्राह्मण माजले होते । फुलेंनी त्यांच्याविरुद्ध तेंव्हा लिहिणे । तेंव्हा योग्यच होते। शिवाय ज्या समाजातल्या स्त्रिया शिकतात तोच समाज प्रगती करतो । सावित्रिमाइंनि ब्राहमणांसकट सर्व स्त्रियांना शिकवले आणि विधवा केशवपनासारखी दुष्ट रूढी बंद करण्यासाठी नाव्ह्यांचा संप घडवला. विधवेचे केस भादरून तिला रंडकि बनवण्याची दुष्ट रूढी ब्राह्मण समाजातच जास्त प्रचलित होती . आणि दुष्ट प्रथे पासून आपल्या स्त्रियांचे रक्षण फुले पती पत्नींनी केले …. म्हणुन ब्राह्मणांनि फ़ुलेंचे आजन्म ऋणी राहिले पाहिजे .शेवटी महात्मा फुले आणि सावित्रि आईने एका ब्राह्मण विधवेच्या परित्यक्त ब्राह्मण मुलाला - यशवंताला दत्तक घेतले आणि त्याच्या नावे आपली सर्व संपत्ति केली . फुलेंच्या ब्राह्मण विरोधकांनी हे विसरता कामा नये . ज्या समाजातल्या स्त्रिया शिकतात - सुधारतात - तोच समाज प्रगती करतो.. हे … हे ब्राह्मणांनि निदान आता तरी ओळखुन या नामांतराला पाठिंबा दिला पाहिजे .

ख्रिस्त महंमद - मांग ब्राह्मणासी - ।
धरावे पोटासि - बंधुपरि - ज्योती म्हणे । । 











४) भारतात जाती आहेत . त्यामुळे जातीय राजकारणे होणे हि स्वाभाविक आहे . पण पुणे या नावातच काहीतरी ओंगळ आहे बीभत्स आहे असे मानणारे - राजा ढाले आणि हनुमंत उपरे हे लोक - या उद्गारातून - समाजकारण , राजकारण यातले काहीही करत नाहीत . हेट इन प्लुरल चा हिटलरी गुणधर्म जागृत ठेवत आहेत . ५ - ५० वर्षाची उत्तर पेशवाई हि पुणे शहराची एकमेव ओळख नाही . रानडे , गोखले , महात्मा फुले आणि अंधश्रद्धा निर्मुलनासाठी जीवाची बाजी लावणार्या दाभोलकारांच्या साधनेचे प्रमुख कार्यालयहि पुणे येथेच आहे. ढाले उपरेनि द्विरुक्ती होते म्हणुन - पुणे या शब्दाला विरोध दाखवलेला नाही . आपलि हिटलरि मानसिकता दाखवत एका आक्ख्या गावाचाच द्वेष कसा करता येतो ते दावले आहे . मुळात बिनविरोध नामांतर होत असताना स्वत:कडे लक्ष वेधून घेण्यासाठी केलेला हा बालिश उद्योग आहे … कि नंतर वेगळ्या कोणा तर्फे जिजाबाइचे नाव पुढे करून मराठा विरुद्ध माळी कार्ड पुढे करत -- आर्म स्ट्रोंग भुजबळांना दाबण्याचि हि -- पवार खेळीची सुरवात आहे ? जिजामातेच्या नावाची चर्चाही काही लोकांनी उकरली होती .

५) मुळात नामांतर , स्मारके आणि आरक्षण हे सर्व योग्य असले तरी तेथेच अडकुन पडता येणार नाही. यापुढे जाण्याची गरज आहे .

६) मराठवाड्यातले नामांतर युद्ध केवळ विद्यापीठाच्या नावापुरते कधीच नव्हते . मराठवाड्यातल्या गायरान जमिनीची मालकी दलितांकडे असावी कि मराठा - कुणबी - माळी या जातिंकडे ? यावरच्या उग्र आंदोलनांचि पार्श्वभूमी त्याला होती . निजामाच्या बाजूने कोण होते आणि विरुद्ध कोण ? असा हिंदु मुस्लिम झगड्याचा आयाम हि त्याला होता . त्यावेळी समाजवादी अनंत भालेराव ते बाळासाहेब ठाकरे वगैरे सर्वच दिग्गज या लढ्यात आपापल्या पुर्वग्रहांनिशि विरोध करते झाले होते .
पवारांची आणि ठाकरेंची खेळी यशस्वी झाली आणि राज्याभरातले नवबौद्ध पवारांमागे उभे राहिले तर मराठवाड्यातल्या मराठा समाजात शिवसेना फोफावली .


७ ) पुणे विद्यापीठाच्या नामांतरा मागे अशी कोणतीही वर्तमानकालीन खर्या खुर्या सामाजिक संघर्षाची पार्श्वभूमी नाही . त्यामुळे त्याला विरोध होणार नाही . आणि त्यावर कोणाला राजकीय पोळ्याहि भाजता येणार नाहीत . हा पण आपण किती मिडिया क्रेझी आहोत हे सिद्ध करण्यासाठी वेडी वाकडी विधाने अवश्य करता येतील

Saturday, 16 November 2013

वारांगनेव नृपनीती: RSS By दत्तप्रसाद दाभोळकर

http://divyamarathi.bhaskar.com/article/MAG-duttaprasad-dabholkars-artical-on-rashtriya-swayamsevak-sangh-4429153-NOR.html
दत्तप्रसाद दाभोळकर | Nov 10, 2013, 02:00AM IST
 
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वारांगनेव नृपनीती
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघाचे संस्थापक डॉ. हेडगेवार यांची पत्रे आणि संघाचे द्वितीय सरसंघचालक गोळवलकर गुरुजी यांचे ‘विचारधन’ हे पुस्तक, या दोहोंत कडव्या मुसलमानद्वेषाचे ढीगभर पुरावे आहेत. गुरुजींनी संघाची शाखा म्हणून जनसंघ सुरू केल्यावर संघाच्या वरिष्ठ प्रचारकांनी त्यांना विचारले, ‘तुम्हीच आम्हाला सांगितलंय की, ‘वारांगनेव नृपनीती अनेक रूप:’ मग आपण वारांगनेच्या मागे का लागतोय?’ यावर गुरुजी म्हणाले, ‘वारांगनेव नृपनीती... हे बरोबरच आहे; पण आपण कुठे वारांगनेच्या मागे लागतोय? नृपनीती म्हणजे वारांगना नव्हे, पण दिल्ली जिंकून आल्यावर एखादा बाजीराव आपल्या दरबारात बसलाय आणि एखादी मस्तानी त्याच्या तालावर नाचत असेल, तर चिंता करण्याचे कारण नाही.’
 
या ‘वारांगनेव नृपनीती’ या संघाच्या तत्त्वज्ञानाप्रमाणे संघाने अनेकदा खरे चेहरे लपवले आणि फसवणारे मुखवटे चेह-यावर चढवले. जनमानस नव्हे, तर संघाचे वरिष्ठ स्वयंसेवकसुद्धा भ्रमित झाले. संघ शिक्षा वर्गातील एका चर्चेत एका वरिष्ठ स्वयंसेवकाने देवरसांना विचारले, ‘संघाची तीन तत्त्वे आपण सोडली का?’ देवरसांनी हसून त्याला विचारले, ‘कोणती तीन तत्त्वे?’ त्याने सांगितले, ‘हिंदूंचाच हिंदुस्थान, भगवा ध्वज हा राष्ट्रध्वज व एकचालकानुवर्तित्व.’ देवरस म्हणाले, ‘अरे, संघाचे फक्त एकच तत्त्व आहे; हिंदुस्थान हा हिंदूंचा आहे, म्हणजेच हे हिंदू राष्ट्र आहे. एकदा हे झाले, की मग ‘भगवा ध्वज हा राष्ट्रध्वज’ हे स्वाभाविकपणे येते. (संदर्भ - संघाचे महाराष्ट्र विभाग प्रमुख दामुअण्णा दाते यांचे ‘स्मरण शिल्पे’ हे पुस्तक.)
 
‘वारांगनेव नृपनीती’ हे मनात पक्के ठरवलेला संघ अनेक मजेशीर खेळ्या खेळतो. तो नथुरामला नाकारतो. गांधीजींना आपले दैवत मानतो. आपण यापूर्वी काय बोललोय, कसे वागलोय, हे लोक विसरले असणार, अशी त्याची पक्की खात्री असते. गांधीजींच्या खुनानंतर नथुराम गोडसेशी आमचा काही संबंध नाही, असे संघ सांगत राहिला. मात्र, ‘गांधी हत्या आणि मी’ या पुस्तकाच्या प्रकाशन समारंभात गोपाळ गोडसे यांनी, ‘आम्ही दोघे भाऊ संघाचे क्रियाशील स्वयंसेवक होतो’, असे सांगितले. हे विधान त्या वेळी देशातील सर्वच वर्तमानपत्रांत प्रसिद्ध झाले. परंतु त्या वेळी लालकृष्ण अडवाणी यांनी ‘गोडसेंचा संघाशी काहीही संबंध नव्हता.’ असे जाहीर करून गोडसे यांचा संघाशी संबंध नाकारला. त्यावर गोपाळ गोडसे यांनी ‘फ्रंटलाइन’ला 28 जानेवारी 1994रोजी मुलाखत देऊन अडवाणींच्या विधानाची संतप्त शब्दांत निर्भर्त्सना करून ‘आम्ही सर्व भाऊ संघाचे निष्ठावान स्वयंसेवक होतो. आम्ही घरापेक्षा संघातच जास्त वाढलो. नथुराम बौद्धिक प्रमुख होता. संघाशी असलेला आमचा संबंध नाकारणे हा भेकडपणा आहे. कोर्टात खटला सुरू होता त्या वेळी त्याने दिलेल्या निवेदनात संघ सोडल्याचे सांगितले होते. कारण तसे सांगितले नाही तर संघ व गोळवलकर अडचणीत येतील, असे त्याला सांगण्यात आले होते. पण खरे म्हणजे, त्याने त्या वेळी संघ सोडलेला नव्हता.’
 
या ‘वारांगनेव नृपनीती’मध्ये संघ केवळ नथुरामला नाकारून थांबला नाही, तर नंतर संघाने गांधीजींना महात्मा आणि प्रात:स्मरणीय म्हटले. वाजपेयी आणि रज्जूभैया या दोघांची तर एकदा याबाबत चढाओढ लागली होती. वाजपेयी यांनी गांधीजींच्या स्वप्नातले रामराज्य आणणे हे माझे कार्य आहे, म्हणून सांगितले आणि रज्जूभैयांनी भारताच्या नवरत्नांमध्ये सर्वात देदीप्यमान असलेल्या महात्मा गांधी यांना अजून भारतरत्न मिळू नये, म्हणून संताप व्यक्त केला!
पण संघाची गांधीजींबद्दलची यापूर्वीची भूमिका काय होती? गुरुजींनी त्यांच्या ‘विचारधन’ या पुस्तकात ‘प्रादेशिक राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ या प्रकरणात ‘देशाला पौरुषहीन बनवणारे आत्मघातकी नेतृत्व’, असा त्यांचा उल्लेख केला आहे. गुरुजींनी हा गांधीद्वेष स्वयंसेवकांच्या मनात एवढा भरला होता की, गरज म्हणून गुरुजींनी 1965मध्ये ‘भारतभक्ती स्तोत्रात’ महात्मा गांधींच्या नावाचा समावेश केला. त्या वेळी प्रचंड नाराजी उमटली. पुणे जिल्ह्याचे एक ज्येष्ठ प्रचारक गोपाळराव देशपांडे त्यावर नाराजीने बोलले, ‘काकासाहेब मुळे यांनी माझ्या विभागात हे प्रात:स्मरण नको, असे म्हटले.’ काशिनाथपंत लिमये यांनीही विरोध प्रकट केला. संघाच्या शिस्तीत हे अक्षरश: बंड होते. गुरुजींनी पत्र पाठवून त्यांना ‘आपला निर्णय आमच्यावर बंधनकारक नाही, असा पायंडा आपणासारख्या ज्येष्ठ कार्यकर्त्यांनी पाडण्याचे ठरवले, तर मी काय करणार?’ असा प्रश्न विचारला.
 
महात्मा फुले, आंबेडकर अशाच प्रकारे 1985मध्ये ‘एकात्मता स्तोत्रात’ आले. त्यानंतर तर समरसता मंचाच्या व्यासपीठावर गुरुजी, डॉ. हेडगेवार यांच्या बरोबरीने त्यांच्या फोटोंना स्थान दिले गेले. एकेकाळी महात्मा फुले म्हणाले होते, ‘बरे झाले हे शिपायांचे बंड फसले. नाही तर पुन्हा आमच्या पायात काठी आणि हातात मडके आले असते आणि आम्ही शिकतो म्हणून आमच्या शाळा जाळल्या असत्या.’ अशा वेळी त्यांचा आणि संघ तत्त्वज्ञानाचा संबंध काय? ते राहू देत. हे ‘हिंदूंचाच हिंदुस्थान’ म्हणून उभे आहेत आणि महात्मा फुले एका ठिकाणी म्हणताहेत, ‘सोमनाथाचे मंदिर उद्ध्वस्त करून महंमदाच्या जवांमर्द सैनिकांनी आर्थिक व सामाजिक पिळवणुकीतून आमची सुटका केल्याबद्दल आम्ही त्यांचे आभारी आहोत.’ आता याचं संघ काय करणार? संघाचे व्यासपीठ महात्मा फुले आणि भारतरत्न आंबेडकर नेमके काय म्हणाले ते सांगत नाही,   तर गोळवलकर आणि डॉ. हेडगेवार जे म्हणाले तेच हे महामानव यापूर्वी सांगत होते, म्हणून सांगत असते.
 
ज्यांचे विचार महाराष्ट्राला माहीत आहेत त्या महापुरुषांबद्दल संघ परिवार ही खेळी खेळतो, तर त्यांच्यापुढे विवेकानंद आणि सरदार पटेल म्हणजे, ‘किस झाड की पत्ती’. विवेकानंदांनी सांगितले, या देशाचा अभ्युदय करावयाचा असेल, तर हिंदू- मुसलमान सहकार्य नव्हे, तर समन्वय हवा. या देशातील धर्मांतरे ख्रिश्चन आणि मुसलमान यांनी केलेल्या अत्याचारामुळे नव्हे, तर उच्चवर्णीयांनी केलेल्या अत्याचारामुळे झाली आहेत. त्यांचं धर्मांतरही पुन्हा आपापल्या जातीतच झालंय! दलितांबद्दल आपल्या मनात जी कणव आणि सहसंवेदना आहे, तीच आपल्या मनात त्यांच्याबद्दल हवी. 10 जून 1898 रोजी सर्फराज हुसेन यांना विवेकानंदांनी पत्र पाठवून सांगितले, ‘आमच्या अद्वैत वेदांतातील सिद्धांत कितीही सूक्ष्म आणि सुंदर असले, तरी प्रत्यक्ष व्यवहारात समतेचा संदेश सर्वप्रथम आणला तो इस्लामनेच. मात्र, जेथे वेदही नाहीत, कुराणही नाही आणि बायबलही नाही, अशा ठिकाणी आपणाला मानवजातीला घेऊन जायचे आहे. मात्र, हे काम आपणाला वेद, कुराण आणि बायबल यांचा आधार घेऊनच करावे लागेल.’ 20 ऑगस्ट 1892 रोजी जुनागडच्या नवाबांना पत्र पाठवून ते सांगतात, ‘ज्यांच्या पाचशे पिढ्यांनी वेद ही काय चीज आहे हे पाहिलेले नाही, ते पुरोहित आज वेद सांगताहेत. परमेश्वरा, ब्राह्मणांच्या रूपाने आज या देशात हिंडणा-या या राक्षसांपासून या देशाचे रक्षण कर.’ आणि 27 एप्रिल 1896 रोजी आपल्या आलमबझार मठातील शिष्यांना पत्र पाठवून ते सांगतात, ‘आपले देव आता जुने झालेत. आता आपणाला नवा देव, नवा वेद आणि नवा धर्म हवा आहे. कारण आपणाला नवा भारत घडवायचा आहे.’ असे नेमके आणि भेदक विचार मांडणारे विवेकानंद. मात्र, संघ परिवार त्यांचे आणि आमचे विचार, तत्त्वज्ञान आणि रचना एकच आहे, असे सांगत त्यांचा जयजयकार करत पुढे येतो. विवेकानंदांचे विचार दडपून त्यांच्या नावावर आपले विचार लोकांच्या गळी मारण्याचा प्रयत्न असतो.
 
संघ परिवार आज पटेलांबद्दल हेच करतोय. नेहरू, पटेल, लोहिया ही गांधीजींनी निवडलेली आणि घडवलेली माणसे आहेत. सर्वधर्म समभाव, साधनशुचिता आणि लोकशाही हे त्यांच्यावरचे वज्रलेप संस्कार आहेत. संघाने आपल्या स्वयंसेवकांवर केलेले तप्त संस्कार हिंदूंचाच हिंदुस्थान, कडवा मुसलमानद्वेष आणि एकचालकानुवर्तित्व हे आहेत. नथुराम गोडसे, बाबरी मशिदीचा विध्वंस, श्रीराम सेना हे सर्व त्यात येते. श्रीराम सेनेने मुलींना हॉटेलमधून बाहेर काढून बडविले. त्यानंतर ‘हिंदू व्हॉइस’ या परिवाराच्या मासिकात- ज्याला सरसंघचालकांचा आशीर्वाद आहे, त्यात श्रीराम सेनेच्या प्रमोद मुतालिकांची मुलाखत आली. एप्रिल 2009मध्ये प्रसिद्ध झालेल्या त्या मुलाखतीत त्याने सांगितले, ‘मी संघाचा आहे. हा अतूट संबंध आहे. नथुरामने गांधींचा खून करून फार मोठी राष्ट्रसेवा केली, असे मी मानतो. मात्र, मी तेव्हा तेथे असतो, तर नेहरूंचापण खून केला असता.’
 
हे खुनाचे राजकारण करणा-या संघाबद्दल पटेल काय म्हणालेत, हे संघाने व मोदींनी लक्षात घ्यावयास हवे. केंद्रीय मंत्रिमंडळात नेहरूंनी सामील करून घेतलेले (तेव्हा हिंदू महासभेचे आणि नंतर जनसंघाचे नेते) श्यामाप्रसाद मुखर्जींना 18 जुलै 1948 रोजी पत्र पाठवून सरदार पटेलांनी सांगितले, ‘म. गांधींचा अघोरी आणि अमानुष खून घडावा, अशा त-हेचे वातावरण हिंदू महासभा, विशेषत: रा. स्व. संघाने देशात निर्माण केले होते, हे सरकारकडून आलेल्या पुराव्यावरून सिद्ध होते. हिंदू महासभेचे कार्यकर्ते या कटात सामील होते याबद्दल माझ्या मनात पक्की खात्री आहे. रा. स्व. संघाच्या हालचाली तर केंद्र सरकारच्या अस्तित्वालाच धोका निर्माण करणा-या होत्या. संघावर बंदी घालूनही त्यांच्या विघातक हालचाली सुरूच असल्याचे अहवाल माझ्याकडे येत आहेत.’
 
त्यानंतर पटेलांनी 11 सप्टेंबर 1948 रोजी गोळवलकरांना पत्र पाठवले. त्यात म्हटलंय, ‘हिंदूंना संघटित करून त्यांना मदत करणे समजण्यासारखे आहे; परंतु निरपराध स्त्री-पुरुष आणि लहान मुलांवर सूड उगवायला संघ प्रेरित करीत होता. हीन पातळीवरून संघ स्वयंसेवक जे विषारी फुत्कार सोडीत होते, त्याचा परिणाम म. गांधींसारख्या अलौकिक महात्म्याच्या खुनात झाला. म. गांधींच्या खुनानंतर संघाच्या लोकांनी आनंद व्यक्त केला. इतकेच नव्हे, तर अनेक ठिकाणी मिठाई वाटून आनंद साजरा केला. त्यामुळे संघ सरकारच्या नव्हे, तर भारतीय जनतेच्या मनातून साफ उतरला आहे. जनतेच्या मनात संताप उसळला आहे, संतापाचा पारा फारच वर चढला आहे.’
 
पटेलांना काय माहीत, जनतेचा पारा उतरवता येईल, हे संघाला चांगलेच ठाऊक होते. थोडा काळ जाऊ द्यावा. मग महात्मा फुले, महात्मा गांधी, भारतरत्न आंबेडकर, विवेकानंद आणि खुद्द सरदार पटेल आमचेच विचार मांडत होते किंवा आम्ही त्यांचा वारसा चालवतोय, हे लोकांना प्रचारातून समजावून देता येईल. विश्वामित्री पवित्रा घेऊन, नथुराम गोडसे आणि प्रमोद मुतालिक यांच्याशी आमचा संबंध काय? त्यांचे नाव आम्ही प्रथमच ऐकतोय, असे सांगता येईल आणि ‘वारांगनेव नृपनीती’ या गुरुजींनी दिलेल्या तत्त्वाची शिकवण कामी येत राहील.

Sunday, 29 September 2013

राजकीय गुन्हेगारीला अभयदान!...प्रा.उल्हास बापट

Sakal, Saptarang, Sunday, 29 Sept.2013
- प्रा. उल्हास बापट profulhasbapat@yahoo.co.uk
रविवार, 29 सप्टेंबर 2013 - 03:15 AM IST
http://www.esakal.com/NewsDetails.aspx?NewsId=4743057666362498664&SectionId=3&SectionName=सप्तरंग&NewsDate=20130929&Provider=प्रा.%20उल्हास%20बापट%20profulhasbapat@yahoo.co.uk&NewsTitle=राजकीय%20गुन्हेगारीला%

गुन्हेगारांना निवडणूक लढवण्यास प्रतिबंध करणारा निकाल सर्वोच्च न्यायालयानं दिला. अनेक लोकप्रतिनिधींच्या पदांवर गदा येण्याची शक्‍यता निर्माण झाल्यानं केंद्र सरकारनं अशा लोकप्रतिनिधींना वाचवण्यासाठी वटहुकमाचं हत्यार बाहेर काढलं. राष्ट्रपती प्रणव मुखर्जी यांनी त्याबद्दल स्पष्टीकरण विचारलं आहे. या वटहुकमाचे परिणाम, त्याची गरज, त्याची कायदेशीर बाजू व त्याचं भवितव्य, याविषयी हे सांगोपांग विश्‍लेषण... 

राजकारणातील गुन्हेगारी कमी करण्याचा प्रयत्न करणारे दोन महत्त्वाचे निर्णय सर्वोच्च न्यायालयानं गेल्या काही दिवसांत दिले. एका निर्णयानं गुन्हा सिद्ध झाल्यास संसद सदस्य किंवा राज्यातील कायदेमंडळाचा सदस्य त्वरित अपात्र ठरतो, तर दुसऱ्या निर्णयानं तुरुंगातून निवडणूक लढविता येणार नाही, हे स्पष्ट केलं आहे. या दोन्ही निर्णयांची सविस्तर चर्चा होणं आवश्‍यक आहे. 

देशाच्या सध्याच्या राजकारणातील गुन्हेगारीचं चित्र भीषण आहे. गेल्या लोकसभा निवडणुकीत लोकसभेच्या 545 जागांपैकी 450 जागांवर एक तरी गंभीर आरोप असलेला उमेदवार उभा होता. हे आरोप खुनापासून घरफोडीपर्यंत आणि बलात्कारापासून खंडणीवसुलीपर्यंतचे आहेत. असे सराईत गुन्हेगार संसदेत प्रवेश करू लागले, तर लोकशाहीचं अधःपतन निश्‍चित आहे. देशात जोमानं प्रगती करणाऱ्या लोकशाहीवर सध्या गुन्हेगारीचं सावट आलं आहे. त्यामुळेच, गुन्हेगारांचा राजकारणातील प्रवेश कसा थांबवायचा, ही सर्वांत जास्त मोठी समस्या आहे. 

घटना समितीमध्ये 26 नोव्हेंबर 1949 ला भारताची राज्यघटना स्वीकृत झाली. डॉ. राजेंद्रप्रसाद हे घटना समितीचे अध्यक्ष होते. राज्यघटना स्वीकृत करण्यापूर्वी केलेल्या भाषणात डॉ. राजेंद्रप्रसाद यांनी त्यांची खंत व्यक्त केली आहे. ते म्हणतात, ""ही सुंदर राज्यघटना स्वीकृत करताना मला दोन गोष्टींचं फार दुःख वाटतं. एक म्हणजे, आपण आपली राज्यघटना भारतीय भाषेत लिहू शकलो नाही आणि दुसरी म्हणजे संसदेमध्ये फक्त चारित्र्यसंपन्न आणि प्रामाणिक नागरिक जातील, याची कोणतीही हमी या राज्यघटनेत नाही.'' 

सलग सहासष्ट वर्षं लोकशाही पद्धतीनं काम सुरू असलेला भारत हा तिसऱ्या जगातील एकमेव देश आहे. दुसऱ्या महायुद्धानंतर अनेक देशांना स्वातंत्र्य मिळालं आणि अनेकांनी लोकशाही पद्धतीचा स्वीकार केला; परंतु त्यात त्यांना अपयश आलं. काही ठिकाणी हुकूमशाही आली, तर काही ठिकाणी लष्करानं सत्ता ताब्यात घेतली. तिसऱ्या जगातील अनेक देशांत लोकशाहीचा लोप होत असताना भारत त्याला अपवाद ठरला. पाकिस्तानसारख्या देशात आजपर्यंत चार राज्यघटना आणि तितकेच हुकूमशहा झाले. इतर देशांत लोकशाहीची पडझड होत असता भारत हा लोकशाहीचा दीपस्तंभ ठरला. भारतानं सार्वभौम प्रजासत्ताक होता क्षणी 21 वर्षं पूर्ण झालेल्या नागरिकाला मताधिकार दिला. अमेरिका, इंग्लंडसारख्या लोकशाही देशांमध्येसुद्धा कृष्णवर्णीय आणि महिलांना त्यासाठी दीडशे वर्षं वाट पाहावी लागली. महिलांना पूर्ण मताधिकार इंग्लंडमध्ये 1928, तर स्वित्झर्लंडमध्ये 1971 मध्ये मिळाला! फार थोड्या देशांमध्ये घटनात्मक दर्जा असलेली स्वतंत्र निवडणूक यंत्रणा आहे. आपल्याकडं पूर्ण स्वातंत्र्य असलेला कलम 324 प्रमाणे निवडणूक आयोग आहे. 

शेषन यांचं योगदान अविस्मरणीय 
राजकारणातील गुन्हेगारीला आवर कसा घालायचा, हा एक यक्षप्रश्‍न आहे. या प्रश्‍नाला प्रथम मुख्य निवडणूक आयुक्त टी. एन. शेषन यांनी हात घातला. पैसा, भ्रष्टाचार आणि गुन्हेगारी, ही भारताच्या लोकशाहीला लागलेली कीड आहे, असं मत त्यांनी मांडलं आणि अनेक विधायक पावलं उचलली; परंतु दुर्दैवानं त्यांनी हुकूमशाही सुरू केली. अनेक ठिकाणी लक्ष्मणरेषा ओलांडली आणि स्वतःच्या पायावर धोंडा पाडून घेतला. संसदेनं निवडणूक आयोग त्रिसदस्यीय केला आणि शेषन यांच्यावर अंकुश आणला; परंतु भारतातील राजकीय भ्रष्टाचार कमी करण्याचा इतिहास लिहिताना टी. एन. शेषन यांचं नाव वगळता येणार नाही इतकं त्यांचं योगदान आहे. 

न्यायालयीन साहसवाद विरुद्ध संसद 
एक प्रश्‍न नेहमी विचारला जातो, की या निर्णयांमध्ये "न्यायालयीन साहसवाद' किंवा "न्यायालयीन आक्रमकतावाद' दिसतो का? न्यायालयानं आपली कार्यसीमा ओलांडून संसदेच्या अधिकारक्षेत्रावर अतिक्रमण केलं आहे का? 

संसदेनं कायदे करणं, कार्यकारी मंडळानं त्याची अंमलबजावणी करणं आणि न्यायालयानं कायद्याचा अर्थ लावून न्याय देणं, ही सत्ताविभागणी आहे; परंतु ज्या वेळी न्यायालय आपली कक्षा ओलांडून कायदाप्रक्रिया आपल्या हातात घेते, त्या वेळी त्याला "न्यायालयीन साहसवाद' म्हणतात. उदा. ः राज्यघटनेनं जगण्याचा मूलभूत अधिकार दिलेला आहे. त्याचा अर्थ लावताना सर्वोच्च न्यायालयानं जगण्याचा अधिकार म्हणजे प्रतिष्ठेनं आणि आत्मसन्मानानं जगण्याचा अधिकार आणि त्यामुळं असं जगता येत नसेल, तर मरण्याचा पण मूलभूत अधिकार आहे, असा लावला. याचा अर्थ आत्महत्या करण्याचा अधिकार आला. आता भारतातील फौजदारी कायदा आत्महत्येचा प्रयत्न करणं, हा गुन्हा आहे, असं सांगतो. हे कायदानिर्मिती प्रक्रियेवरील न्यायालयाचं अतिक्रमण ठरतं. (अर्थात, काही दिवसांनी सर्वोच्च न्यायालयानं हा निर्णय स्वतःच रद्द केला, ही गोष्ट वेगळी!) 

राज्यघटनेनं एखादा कायदा राज्यघटनेच्या चौकटीत बसतो की नाही, हे पाहण्याचा अधिकार सर्वोच्च न्यायालयाला दिलेला आहे. कायदा राज्यघटनेशी विसंगत असेल, तर तो घटनाबाह्य ठरवण्याचा अधिकार पण सर्वोच्च न्यायालयाला आहे. त्यामुळे सदर निर्णयात लोकप्रतिनिधी कायद्याचे 8 (4) हे कलम घटनेशी विसंगत आहे, असे म्हणण्यात सर्वोच्च न्यायालयानं स्वतःची अधिकारकक्षा ओलांडली आहे, असे वाटत नाही. अर्थात, सर्वोच्च न्यायालय या निर्णयाचा पुनर्विचार करू शकेल, ही गोष्ट वेगळी. 

वटहुकमाची प्रथा इंदिरा गांधींपासून 
न्यायालयाचा एखादा अप्रिय निर्णय फिरवण्यासाठी कायदा बदलणं किंवा वेळप्रसंगी घटनादुरुस्ती करणं, हे अनेकदा घडलं आहे. स्वतःच्या स्वार्थापोटी घटनादुरुस्ती करण्याची ही अनिष्ट प्रथा इंदिरा गांधींपासून सुरू झाली. अलाहाबाद उच्च न्यायालयाचा निर्णय इंदिरा गांधींच्या विरोधात गेल्यावर 39 वी घटनादुरुस्ती करून 329 (अ) हे कलम नव्यानं घालण्यात आलं. या कलमानं पंतप्रधानांची निवडणूक न्यायालयाच्या अधिकारक्षेत्रातून काढून टाकण्यात आली. पूर्ण लोकशाहीविरोधी आणि स्वतःचं पद वाचवण्याकरिता केलेली ही घटनादुरुस्ती आणीबाणीच्या काळात चार दिवसांत संमत करण्यात आली. त्यामुळं सर्वोच्च न्यायालयाच्या या निर्णयातून सुटण्याकरिता वटहुकूम काढणं, हे परंपरेला धरूनच आहे, असा वटहुकूम राज्यघटनेच्या 123 कलमाखाली राष्ट्रपती काढू शकतात. 

राज्यघटनेतील वटहुकमाच्या तरतुदी 
राज्यघटनेच्या 123 कलमाखाली काही तत्काळ कारवाई आवश्‍यक असेल, तरच वटहुकूम काढता येतो. (आजमितीला अशी परिस्थिती नाही आणि एखाद्या गुन्हेगार संसदसदस्याला वाचवणं, हे राज्यघटनेला खचितच अपेक्षित नाही.) राज्यघटनेनं कायदानिर्मितीचा हा अधिकार राष्ट्रपतींना दिलेला आहे. संसदेची दोन्ही गृहे सत्रासीन असतील, तर वटहुकूम काढता येत नाही; परंतु संसदेच्या विरामकाळात तत्काळ कारवाई करणं आवश्‍यक आहे, अशी राष्ट्रपतींची खात्री पटल्यास परिस्थितीनुसार जरूर वाटेल असा वटहुकूम राष्ट्रपती जारी करू शकतात. हा वटहुकूम कायद्याप्रमाणं प्रभावी आणि परिणामकारक असतो. अर्थात, या वटहुकमाला संसदेचं सत्र सुरू झाल्यावर सहा आठवड्यांच्या आत संसदेची संमती मिळवणं आवश्‍यक आहे. राष्ट्रपती हा वटहुकूम कोणत्याही वेळी मागं पण घेऊ शकतात, हे घटनेनं स्पष्ट केलं आहे. 

आता प्रश्‍न असा आहे, की मंत्रिमंडळानं वटहुकूम काढण्याचा दिलेला सल्ला राष्ट्रपतींवर बंधनकारक आहे का, याचे उत्तर कलम 74 मध्ये दिलं आहे. राष्ट्रपती आपल्या कार्याधिकारांचा वापर पंतप्रधान प्रमुखपदी असलेल्या मंत्रिमंडळाच्या सल्ल्यानुसार करतील. अर्थात, राष्ट्रपतींना हा सल्ला फारच चुकीचा वाटल्यास ते मंत्रिमंडळाला त्याचा पुनर्विचार करण्यास सांगू शकतात. वटहुकमासंदर्भात राष्ट्रपती प्रणव मुखर्जी यांनी स्पष्टीकरण मागवलं आहे, हे महत्त्वाचं आहे; परंतु तोच सल्ला मंत्रिमंडळानं पुन्हा दिला, तर राष्ट्रपतींवर बंधनकारक ठरतो. याचाच अर्थ केंद्रीय मंत्रिमंडळ ठरवेल त्याचप्रमाणं राष्ट्रपतींना वागावं लागतं. 

अर्थात, फारच चुकीचा सल्ला आहे आणि त्याप्रमाणं वागणं तत्त्वाला किंवा सदसद्विवेकबुद्धीला सोडून आहे, असं राष्ट्रपतींना वाटल्यास त्यांना राजीनामा देण्याचा मार्ग मोकळा आहेच! परंतु, तत्त्वाकरिता राजीनामा देणारे राष्ट्रपती अजून तरी देशानं पाहिलेले नाहीत किंवा तशी वेळ येथील राजकारणी मंडळींनी अजूनतरी येऊ दिली नाही. राष्ट्रपतींनी मंत्रिमंडळाचा सल्ला मानला नाही, तर कलम 61 नुसार घटनेचं उल्लंघन केल्याबद्दल त्यांच्याविरुद्ध महाभियोग होऊ शकतो. अर्थात, यासाठी संसदेच्या प्रत्येक गृहातील एकूण सदस्यांच्या दोनतृतीयांश सदस्यांचं बहुमत लागतं. असं बहुमत या मितीला अशक्‍य आहे. 

गुन्हे आणि अपात्रतेबाबतच्या तरतुदी 

लोकप्रतिनिधी कायदा 1951 प्रमाणं अनेक गुन्ह्यांबाबत अपात्रतेचे नियम घालून दिले आहेत. कलम 8 (1) प्रमाणं एखाद्या व्यक्तीवर गुन्हा सिद्ध झाल्यास आणि त्यास दोषी ठरवलं गेल्यास तो अपात्र ठरतो. या गुन्ह्यांची यादी फार मोठी आहे. उदा. ः समाजामध्ये धर्म, वंश, जात, भाषा इत्यादी कारणांवरून द्वेष पसरवणं आणि समाजातील ऐक्‍य आणि एकोपा बिघडवणं किंवा निवडणुकांत भ्रष्टाचार करणं किंवा दबावतंत्र वापरणं किंवा बलात्काराबाबतचे गुन्हे किंवा पत्नीचा छळ, अशा अनेक गुन्ह्यांचा समावेश आहे. 

त्याचप्रमाणं अस्पृश्‍यतेचं समर्थन करणं किंवा आचरण करणं, बंदी असलेल्या गोष्टींची आयात-निर्यात करणं, कायद्यानं बंदी असलेल्या संघटनेचं सभासदत्व असणं. परकी चलनाबाबतचे गुन्हे, अमली पदार्थ कायद्याखालील गुन्हे, दहशतवाद आणि फुटीर कारवायांबाबतचे गुन्हे, निवडणुकांमध्ये विविध गटांत शत्रुत्वाची भावना निर्माण करणं किंवा मतपेट्या पळवणं, मतदान केंद्राचा ताबा घेणं किंवा धार्मिक आणि उपासनास्थळांच्या कायद्याखालील गुन्हे; त्याचप्रमाणं राष्ट्रगीत, राष्ट्रध्वज, राज्यघटना यांचा अपमान करणं, या गुन्ह्यांचा समावेश आहे. सतीबंदी कायदा, भ्रष्टाचारविरोधी कायदा, आतंकवादविरोधी कायदा, याखालील गुन्हे यांचा पण समावेश आहे. 

वरील गुन्ह्यांत व्यक्ती दोषी ठरल्यास सदस्यत्व त्वरित अपात्र होतं. 
कलम 8 (2) मध्ये साठेबाजी करणं, अन्नधान्य किंवा औषधांमध्ये भेसळ करणं किंवा हुंडाबंदी कायद्यातील गुन्ह्यांचा समावेश आहे. यामध्ये सहा महिन्यांपेक्षा जास्त तुरुंगवासाची शिक्षा झाल्यास अपात्रता निर्माण होते. 

कलम 8 (3) मध्ये कोणत्याही गुन्ह्याकरिता दोन वर्षांपेक्षा जास्त तुरुंगवासाची शिक्षा झाल्यास अपात्रता निर्माण होते. 
या सर्व तरतुदींमध्ये दोषी ठरल्यापासून व्यक्ती त्वरित अपात्र होते आणि तुरुंगातून सुटका झाल्यावर पुढील सहा वर्षांकरिता अपात्र राहते. 

आता या सर्व अपात्रतेच्या निकषांना 8 (4) कलमात अपवाद सांगण्यात आला आहे आणि तो अपवाद आहे संसदसदस्य आणि राज्यांच्या कायदेमंडळांचे सदस्य! त्यांना मात्र न्यायालयानं दोषी धरल्यास तीन महिन्यांची मुदत मिळते आणि या तीन महिन्यांत अशा दोषी सदस्यानं वरिष्ठ न्यायालयाकडं अपील किंवा अर्ज केल्यास त्याचा निकाल लागेपर्यंत त्याला अभय मिळतं. 

सर्वोच्च न्यायालयानं कलम 8 (4) हे घटनेच्या 102 आणि 191 कलमांशी विसंगत असल्यानं घटनाबाह्य ठरवलं आहे. याचाच अर्थ गुन्हेगार संसदसदस्य आणि राज्याच्या कायदेमंडळाच्या सदस्यांची ही ढाल काढून घेण्यात आलेली आहे आणि ते पण इतर व्यक्तींप्रमाणंच त्वरित अपात्र ठरण्याची भीती निर्माण झाली आहे. 

सर्वोच्च न्यायालयानं गेल्या काही दिवसांत हे दोन "षटकार' मारले आहेत. गुन्ह्यांमध्ये दोषी ठरल्यास सदस्यत्व त्वरित रद्द होणार आणि तुरुंगातून निवडणूक लढवता येणार नाही, या दोन निर्णयांनी गुन्हेगार संसदसदस्यांची झोप उडाली आहे. (तुरुंगातून मतदान करता येत नाही, हे लोकप्रतिनिधी कायद्याच्या कलम 62 (5) मध्ये स्वच्छ लिहिले आहे, याची नोंद येथे घेतली पाहिजे.) 

सर्वोच्च न्यायालयाच्या या निर्णयांमधून सुटका करून घेण्यासाठी वटहुकूम काढून अशा गुन्हेगारांना अभय देणं किंवा एक पाऊल पुढं जाऊन घटनादुरुस्ती करून सर्वोच्च न्यायालयाचा निर्णय निरर्थक करणं, हे मार्ग शिल्लक आहेत. 

निर्णयांची दुसरी बाजू 
सर्वोच्च न्यायालयाच्या या निर्णयांचं लोकांनी अर्थातच स्वागत केलं आहे. अगतिक जनतेला हल्ली सर्वोच्च न्यायालय हाच शेवटचा आधार वाटतो; परंतु या निर्णयानं गुन्हेगारीला लगाम बसेल की उलट खतपाणी मिळेल, अशी शंका काही तज्ज्ञांच्या मनात आहे. त्यामुळं या निर्णयांचे संभाव्य दुष्परिणाम कोणते, हे समजावून घेणं आवश्‍यक ठरतं. या निर्णयानं गुन्हेगारांप्रमाणंच काही सज्जन माणसंही राजकारणाबाहेर फेकली जातील. पैसा, गुंडगिरी, खोटे पुरावे, जिकडं तिकडं विकत घेतली जाणारी माणसं, या सर्वांचा वापर करून एखाद्याला दोषी ठरवणं अवघड नाही. त्यामुळं निरपराध व्यक्तीला उच्च न्यायालय आणि सर्वोच्च न्यायालयाच्या पायऱ्या झिजवून दहा वर्षांनी कदाचित न्याय मिळेल आणि त्याचं निर्दोषत्व सिद्ध होऊ शकेल. अर्थात, इतक्‍या कालावधीनंतर त्याचं राजकीय जीवन संपुष्टात येईल, हे उघडच आहे. त्यामुळे सर्वोच्च न्यायालयानं या प्रश्‍नाचं अर्धवट उत्तर दिलं आहे. तज्ज्ञांच्या मते खरं उत्तर न्यायालयीन प्रक्रिया वेगवान करणं, हे आहे. संसदसदस्य किंवा कायदेमंडळाचे सदस्य यांच्यावर गुन्हेगारीचे आरोप असल्यास हे खटले सहा महिन्यांच्या आत अंतिम निकालात काढले गेले, तरच गुन्हेगारांचा राजकारणातील प्रवेश बंद होईल आणि सज्जन नागरिकांना आणि सदस्यांना त्याचा चटका बसणार नाही. त्यामुळे सर्वोच्च न्यायालयाचे हे दोन निर्णय ही तात्पुरती मलमपट्टी आहे. आजार कायमचा बरा करायचा असेल आणि लोकशाही खऱ्या अर्थानं निकोप करायची असेल, तर न्यायप्रक्रियेचा वेग वाढवणं, हा अंतिम उपाय असल्याचं कायदेपंडित मानतात. 

लोकप्रतिनिधींमध्ये गुन्हेगारांचा समावेश असण्याच्या प्रश्‍नाचा थेट संबंध न्यायप्रक्रियेत होत असलेल्या विलंबाशीही आहे. त्यामुळे ही प्रक्रिया अधिक वेगवान कशी होईल, हे पाहिलं पाहिजे व त्यासाठी सर्वोच्च न्यायालयानं पुढाकार घेण्याची गरज आहे. 

वटहुकमाला राहुल गांधींचा विरोध 

गुन्हेगारांना निवडणूक लढवण्यास प्रतिबंध करणाऱ्या न्यायालयीन आदेशाची अंमलबजावणी रोखण्यासाठी सरकारनं वटहुकूम काढला. या वटहुकमावर लगेच स्वाक्षरी न करता राष्ट्रपती प्रणव मुखर्जी यांनी स्पष्टीकरण विचारलं आहे. सरकारला हा धक्का असतानाच कॉंग्रेसचे उपाध्यक्ष राहुल गांधी यांनीही हा वटहुकूम चुकीचा असल्याची टीका केली आहे. राहुल यांच्या या पवित्र्यानं राजकीय वर्तुळात अनेकांच्या भुवया उंचावल्या गेल्या आहेत. राहुल यांनी वटहुकमाबद्दल नाराजी व्यक्त केल्यानं अनेकांना हादरा बसला आहे. 

(लेखक "राज्यघटना' या विषयाचे प्राध्यापक आहेत.)