Tuesday 28 January 2014

महा बैंक डकैती

महा बैंक डकैती / सुनील

जब खबरें टुकडों में मिलती है तो उनका पूरा अर्थ पता नहीं चलता है। उनको आपस में जोड़ने से पूरा रहस्य खुलता है। वैश्वीकरण के इस जमाने में कारपोरेट बन चुका मीडिया भी कोशिश करता है कि खबरें सनसनी के रूप में ही मिले, समग्रता में नहीं और सच परदे में ही रहे।
ऐसी ही एक खबर दिसंबर में आई। एक प्रवासी भारतीय पूंजीपति ने अपनी बेटी की शादी स्पेन के बार्सीलोना शहर में इतने धूमधाम से की कि यह दुनिया की दूसरी सबसे महंगी शादी बन गई। प्रमोद मित्तल की बेटी सृष्टि की शादी में 505 करोड़ रूपये खर्च हुए। प्रमोद मित्तल दुनिया के सबसे बड़े अमीरों में शामिल लक्ष्मी निवास मित्तल का छोटा भाई है। लक्ष्मी मित्तल की बेटी वनिषा की शादी 2004 में फ्रांस में हुई, वह भी कोई कमजोर नहीं थी। उसमें भी करीब 400 करोड़ रूपये खर्च हुए। प्रमोद की पहली बेटी वर्तिका की शादी 2011 में तुर्की के इस्तंबुल शहर में हुई, वह भी दुनिया की महंगी शादियों में एक है।
ऐसा लगता है कि भाईयों में बेटियों की शादियों में खर्च करने की होड़ चल रही है। लक्ष्मी मित्तल 2004 में तब भी चर्चा में आया जब उसने लंदन में करीब 600 करोड़ रूपये की कोठी खरीदी, जिसे दुनिया के सबसे महंगे घर की पदवी मिली। चार साल बाद उसने अपनी बेटी वनिषा को इससे भी महंगा घर खरीदकर दिया। वह दुनिया की इस्पात की सबसे बड़ी कंपनी ‘‘आर्सलर मिततल’’ का मालिक है।
इतनी खबर मिलने पर कई लोग इसे भारत की बढ़ती समृद्धि, भारतीयों की बढ़ती सफलता, भारतीयों की उद्यमिता आदि का प्रतीक मान सकते हैं और इसे भारत के लिए गौरव का विषय मान सकते हंै। लेकिन एक सहज सवाल उठता है कि यह अनाप-शनाप पैसा आया कहां से ? इसका स्त्रोत क्या है ?
कर्ज लो और अय्याशी करो
एक दूसरी जानकारी जो इस खबर के साथ नहीं आई, से रहस्य की परतें खुलती है। वह यह कि प्रमोद मित्तल और उनकी कंपनी इस देश के बड़े डिफाल्टर कर्जदारों में से एक रहे हैं। अपने भाई विनोद मित्तल के साथ वे 2010 तक इस्पात इंडस्ट्रीज नामक भारत की प्रमुख इस्पात कंपनी के मालिक रहे है। इस कंपनी को भारत के बैंकों और वित्तीय संस्थाओं ने बार-बार विशाल कर्जे दिए, न चुकाने पर माफ किए या उनका नवीनीकरण किया। यह भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अनुमोदित ‘कंपनी कर्ज पुनर्गठन’ (कारपोरेट डेब्ट रिस्ट्रक्चरिंग) योजना के तहत किया गया। इसके तहत कोई कंपनी मुसीबत में है और कर्जों को नहीं चुका पा रही है, तो उसको कुछ रियायतें देकर, कुछ माफ करके, कुछ और वक्त देकर, नए कर्जे दे दिए जाते हैं तथा पुराने कर्जो का समायोजन कर दिया जाता है। कुछ कर्जों के बदले शेयर भी बैंकों को दे दिए जाते हैं। उस कंपनी को जितने बैंकों व संस्थाओं ने कर्जा दिया है सब मिलकर यह फैसला करते हैं। रिजर्व बैंक ने यह योजना 2001 में शुरू की थी और इसके लिए एक प्रकोष्ठ बनाया है।
इस्पात इंडस्ट्रीज के कर्जों का पुनगर्ठन 2003 और 2009 में किया गया था। फिर भी हालत नहीं सुधरी, तब दिसंबर 2010 में जिंदल स्टील वक्र्स के साथ इसका विलय कर दिया गया। उस वक्त इस्पात इंडस्ट्रीज 323 करोड़ रूपये के घाटे में थी। उसके ऊपर 15 कर्जदाता संस्थाओं का 7156 करोड़ रूपये का कर्जा था। इसमें 400 करोड़ का कर्जा डूबत खाते में था। लेकिन इस पूरे दौर में मित्तल बंधुओं के माथे पर शिकन भी नहीं आई और वे बेहिसाब पैसा उड़ाते रहे। 2006 में प्रमोद मित्तल ने करीब 100 करोड़ रूपये में बलगारिया का एक फुटबाल क्लब खरीद लिया। मजदूरांे-कर्मचारियों को वेतन देने के लिए कंपनी के पास पैसा नहीं था। बिजली-पानी का बिल भरने और कच्चा माल खरीदने के लिए भी पैसा नहीं था। लेकिन पूरे वक्त मित्तल बंधु विदेशों में घर, गरम पानी की स्विमिंग पुल, छत पर हेलीपेड और महंगी कारों पर अरबों रूपया लुटाते रहे।
इसी के साथ हाल ही में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्रसिंह को इस्पात इन्डस्ट्रीज द्वारा 2.8 करोड़ रूपये के भुगतान की सीबीआई जांच की खबरों को भी जोड़ लीजिए। ये भुगतान ‘‘वीबीएस’ के नाम से 2009 और 2010 में किए गए थे। वीरभद्र सिंह उस समय केन्द्रीय इस्पात मंत्री थे।
किंगफिशर एयरलाईन्स और उसके मालिक शराब किंग विजय माल्या का मामला खबरों में ज्यादा रहा है। 2005 में स्थापित माल्या की इस कंपनी ने कभी मुनाफा नहीं कमाया। 2010 में कर्जों का पुनर्गठन भी इसका संकट दूर नहीं कर पाया। सितंबर 2012 तक इसका सचित घाटा 8016 करोड़ हो चला था। कंपनी पर तब 13 बैंकों का 13750 करोड़ रूपये कर्जा था। इसके कर्जों के पुनर्गठन की कारवाई फिर चल रही है। अक्तूबर 2012 में सात महीनों से वेतन नहीं मिलने के कारण एक कर्मचारी की पत्नी ने आत्महत्या कर ली। उसी वक्त माल्या के छोटे बेटे ने ट्विटर पर लिखा, ‘‘मैं बिकनी-पहनी माॅडलों के साथ बाॅलीबाॅल खेल रहा हूं।’’ उसके बाद 18 दिसंबर 2012 को अपने जन्मदिन पर विजय माल्या ने तिरूपति जाकर 3 किलो सोना चढ़ाया, जिसकी कीमत करीब एक करोड़ रूपये होती है। गौरतलब यह भी है कि विजय माल्या 2002 से भारत की संसद में राज्यसभा का सदस्य है।
यदि अंबानी की चर्चा नहीं करेंगे तो किस्सा अधूरा रहेगा। मुंबई में 5000 करोड़ रूपये का दुनिया का सबसे महंगा घर ‘‘एंटीलिया’’ बनाने वाले मुकेश अंबानी ने पिछले दिनों अपनी पत्नी नीता का जन्मदिन वहां न मनाकर राजस्थान के राजमहलों में मनाया। मेहमान 32 चार्टर्ड विमानों से आए जिनमें केंद्रीय भारी उद्योग मंत्री, क्रिकेट खिलाडी सचिन तेंदुलकर, फिल्मी हीरो आमिर खान, रणबीर कपूर आदि शामिल थे। इसी अंबानी की रिलायंस कंपनी को भारत सरकार ने पिछले एक साल से प्राकृतिक गैस के दाम बढ़ाकर तगड़ी कमाई का मौका दिया।
बैंको की लूट
एक और खबर पूरे तिलिस्म को समझने में सहायक होती है। यह महत्वपूर्ण खबर कुछ आर्थिक अखबारों व पत्रिकाओं में सिमट कर रह गई। 5 दिसंबर 2013 को चेन्नई में अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ ने एक पत्रकार वार्ता करके पूंजीपतियों द्वारा भारतीय बैंकों की इस विशाल लूट पर सवाल उठाए। संघ ने भारतीय बैंकों (भारतीय स्टेट बैंक, आईडीबीआई और विदेशी बैंक छोड़कर) के सबसे बड़े 50 डिफाल्टरों की सूची जारी की, जिन पर 40,528 करोड़ रूपये का कर्जा फंसा हुआ है। इस सूची में ज्यादातर बड़ी कंपनियां है। केवल चार सबसे बड़ी डिफाल्टर कंपनियों (जिनमें किंगफिशर एयरलाईन्स एक है) पर 22,666 करोड़ रूपये का डूबता हुआ कर्जा है।
संघ ने यह भी बताया कि भारत के सरकारी बैंकों के खराब कर्जों (जिनका समय पर भुगतान नहीं हो रहा है) का आकार बहुत तेजी से बढ़ रहा है। मार्च 2008 में 39,000 करोड़ रूपये से बढ़कर मार्च 2013 में यह 1,64,000 करोड़ रूपये हो चुका है। (हाल ही में जारी रिजर्व बैंक की रपट के मुताबिक अब यह राशि 2,29,000 करोड़ पर पहुंच चुकी है।) इनके अलावा इस अवधि में 3,25,000 करोड़ रूपये के खराब कर्जों का पुनर्गठन करके उन्हें अच्छे कर्जो में बदला गया है। इनमें 83 फीसदी कर्जे बड़ी कंपनियों के हैं। इसका बैंकों के मुनाफों पर भी भारी असर पड़ा है। इन पांच सालों में खराब कर्जों के कारण बैंकों के मुनाफे कुल मिलाकर 1,40,266 करोड़ रूपये कम हो गए। उनमें करीब 40 फीसदी की कमी हो गई। लेकिन यह केवल बैंकों के मुनाफे का सवाल नहीं है, इससे करोड़ों जमाकर्ताओं के हितों का भी सवाल जुड़ा है। ज्यादातर बैंक सरकारी है और यह देश की जनता के पैसे की लूट है। दूसरा खतरा यह है कि चंद कंपनियों पर ये विशाल कर्जे डूबने पर पूरे बैंकिंग उद्योग के लिए संकट पैदा कर सकते है। 2007-08 की वैश्विक मंदी में तो भारतीय बैंक बच गए, लेकिन अब ध्वस्त हो सकते है।
बीमार उद्योग, मस्त उद्योगपति
संघ ने इस प्रचलित कहावत को उद्धृत किया है कि ‘भारत में बीमार उद्योग तो हैं, लेकिन कोई बीमार उद्योगपति नहीं है।’ दरअसल कर्जो के पुनर्गठन के कारण कंपनियों का संकट टलता जाता है और उनके काम को दुरूस्त करने तथा खर्चे कम करने का कोई दबाव नहीं बनता है। बैंकों के प्रबंधन के लिए भी यह आसान रास्ता होता है, क्योंकि इससे उनकी बैलेंस शीट में खराब कर्जों या डूबत कर्जों (नाॅन-परफाॅर्मिंग एसेट या एनपीए) की मात्रा कम हो जाती है। ‘‘कंपनी कर्ज पुनर्गठन’’ के मामले बहुत तेजी से बढ़े हैं। मार्च 2009 में खतम होने वाले वित्तीय वर्ष में 184 मामले थे जिनमें 86,536 करोड़ रूपये की राशि स्वीकृत की गई। 2012-13 में ढ़ाई गुना बढ़कर यह संख्या 401 और राशि 2,29,013 करोड़ रूपये हो गई। चालू वित्तीय वर्ष के केवल प्रथम तिमाही में कर्ज पुनर्गठन के 415 मामले और 2,50,279 करोड़ रूपये स्वीकृत किए गए। दूसरी तिमाही में यह राशि 4,00,000 करोड़ हो गई। स्वयं रिजर्व बैंक के अधिकारियों को इस पर चिंता जाहिर करना पड़ा। उप-गवर्नर के सी चक्रवर्ती को यह कहना पड़ा कि 2008 में चुनाव के पहले करोड़ों किसानों के 50,000 करोड़ रूपये के कर्जे माफ किए गए थे, उसके मुकाबले चंद कंपनियों की यह कर्ज-माफी काफी ज्यादा है।
यहां पर हमारी पूंजीवादी व्यवस्था का दोहरा चरित्र नंगे रूप में सामने आता है। किसान किसी मजबूरी से अपना छोटा सा पच्चीस-पचास हजार का कर्जा नहीं चुका पाता है, तो जलील किया जाता है और खुदकुशी कर लेता है। ये पूंजीपति अरबों रूपये के कर्ज डकारकर अय्याशी की सारी हदें तोड़ते जाते हंै।
इस पूरे खेल में पूंजीपतियों, बैंक अफसरों, नौकरशाहों और राजनेताओं की गहरी सांठगांठ से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इसके पीछे भारत सरकार की वह नीति और इच्छा भी रही है कि येन-केन-प्रकारेण कंपनियों को बचाया जाए व बढ़ाया जाए और इस तरह से राष्ट्रीय आय की ऊंची वृद्धि दर और तेज विकास का भ्रम बनाकर रखा जाए।
भारत के कर्मचारी संगठन अक्सर केवल अपने वेतन-भत्तों की लड़ाई लड़ते रहते हैं। अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ ने भारतीय जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे की इस लूट को उजागर करके देश का भला किया है। ऐसा ही काम उन्हांेने करीब 15 साल पहले किया था। तब भारतीय पूंजीपतियों के एक संगठन ने सरकारी बैंकों के विशाल बकाया कर्जे का हवाला देते हुए तीन बैंकों के निजीकरण की मांग करते हुए मुहिम शुरू की थी। कर्मचारी संघ ने बड़े बकायादारों की सूची निकाल दी और बताया कि इनमें शीर्ष पर उन्हीं पूंजीपतियों की कंपनियां है, जो इस मुहिम को चला रहे है। तब ये पूंजीपति शांत हो गए।
करों में विशाल छूट के तोहफे
दो और जानकारी या खबरें जोड देने से इक्कीसवीं सदी में भारत की पूंजीवादी-नवउदारवादी लूट की तस्वीर पूरी होती है। एक तो वह जिसे पत्रकार पी सांईनाथ बार-बार हमारे ध्यान में लाते हैं। कंपनियों को संकट से राहत देने के नाम पर केन्द्र सरकार साल-दर-साल केन्द्रीय करों में विशाल छूट देती जा रही है। पिछले आठ सालों में मिलाकर केवल चार केन्द्रीय करों में उन्हें 31,88,757 करोड़ रूपये की टेक्स-माफी-छूट के उपहार दिए जा चुके हैं। अन्य तरह के उपहार (जैसे सस्ती जमीन) और राज्य सरकारों द्वारा दी जाने वाली कर-रियायतें इसके अतिरिक्त है।
दूसरी खबर ‘ग्लोबल फाईनेंशियल इंटिग्रिटी’ के स्त्रोत से आई है। दुनिया में धन के अवैध प्रवाह पर नजर रखने वाली यह संस्था है। यह बताती है कि भारत से बाहर जाने वाले दो नंबरी धन का प्रवाह बढ़ता जा रहा है और 2011 में 4,00,000 करोड़ रूपये देश से बाहर गया। यदि 2002 से 2011 के बीच पूरे दशक का मीजान लगाएं तो 15,70,000 करोड़ रूपये अवैध रूप से देश के बाहर गया। 2011 में धन के गैर कानूनी प्रवाह में रूस और चीन के बाद भारत का स्थान दुनिया में तीसरा रहा।
इन सब खबरों और जानकारियों को मिला देने से काफी बातें साफ होती है। पिछले दो दशकों में जिसे भारत की प्रगति, समृद्धि और उभरती हुई आर्थिक ताकत बताया जा रहा था, और भारत की राष्ट्रीय आय की ऊंची वृद्धि दर का जो गुणगान गाया जा रहा था, वह दरअसल कर्जांे और लूट पर खड़ा ताश का महल है। यह ऐसा भ्रष्टाचार है जो वैश्वीकरण और उदारवाद की नीतियों में छिपा है। इसे शायद कोई लोकपाल नहीं पकड़ पाएगा। भारतीय जनता के लगातार बढ़ते कष्टों अभावों और गरीबी के कारण भी इस लूट व डकैती में देखे जा सकते है।
उन्नीसवीं सदी में दादाभाई नोरोजी ने अंग्रेजों द्वारा भारत की लूट पर किताब लिखी थी और वह आजादी के आंदोलन का मुख्या आधार बनी थी। इक्कीसवी सदी में हमारे अपनों द्वारा कई गुना बड़ी इस लूट को कौन रोकेगा, यह चुनौती हमारे सामने है।
लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय महामंत्री एवं सामयिक वार्ता का संपादक है।
पता – ग्राम पोस्ट केसला, तहसील इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.) 461111
मोबाईल नं. 09425040452

Monday 6 January 2014

पुरोगामी नेत्यांनाही सावित्रीचे विस्मरण

सौजन्य:राही भिडे 

{ज्येष्ट पत्रकार आणि संपादक:पुण्यनगरी}

MONDAY, JANUARY 6, 2014


गेल्या ३ जानेवारी रोजी राष्ट्रसेवा दलाच्या महिलांनी पुणे विद्यापीठावर दुचाकी रॅली काढून ज्ञानज्योती सावित्रीबाई फुले नाव धारण करणारा फलक मोठय़ा उत्साहात, घोषणांच्या गजरात विद्यापीठाच्या प्रवेशद्वारावर लावला आणि चेंडू सरकारच्या कोर्टात टोलवला आहे. 


आता सरकारला जाग केव्हा येते, ते पाहूया.राही भिडेक्रांतिज्योती सावित्रीबाई फुले यांच्या जयंती दिनाचे औचित्य साधून पुणे विद्यापीठाला त्यांचे नाव देण्यात येईल, अशी सर्वांची अपेक्षा होती; परंतु विद्यापीठ अधिसभेचा ठराव होऊनही व्यवस्थापन परिषदेने त्यावर शिक्कामोर्तब करण्यास टाळाटाळ केल्याने हा प्रस्ताव थंड बस्त्यात गुंडाळला जाईल की काय, अशी शंका वाटू लागली. निवडणुका जवळ आल्या की, फुले-आंबेडकर-शाहू महाराजांच्या नावांचा गजर करायचा आणि त्यांचे नाव विद्यापीठाला अथवा अन्य संस्थांना देण्याची वेळ आली की ठाम भूमिका घेऊन उभे राहायचे नाही, समाजामध्ये फूट पाडून मतांचे राजकारण करायचे हे आता लपून राहिलेले नाही. भारतीय संविधानानुसार सरकारने ध्येयधोरणे आखलेली असताना मागे हटण्याचे कारण काय? जातीयतेच्या मानसिकतेतून नेतेही बाहेर पडलेले नाहीत, याचे प्रत्यंतर ३ जानेवारी रोजी सावित्रीबाईंच्या जयंती दिनी आले. महाराष्ट्राच्या समृद्ध, साहित्यिक आणि सांस्कृतिक जीवनाचे दर्शन घडवण्याच्या प्रयत्नात असलेल्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनामध्ये सामाजिक जीवनाचे वास्तव मांडणेदेखील तेवढेच आवश्यक आहे. मात्र संमेलनाने विशेषत: संमेलनात सक्रिय सहभाग असलेल्या राजकारण्यांनी सामाजिक भान ठेवून भूमिका मांडणे अपेक्षित असताना त्यांनी उद््घाटनाच्या सोहळय़ात सावित्रीबाईंचे नावही घेऊ नये, याचे आश्‍चर्य वाटले. त्यामुळे काँग्रेस-राष्ट्रवादी आघाडी सरकारची ३ जानेवारीला नामकरण करण्याची खरोखर इच्छा होती का? हाही प्रश्न उभा राहतो. सरकारने नामकरणाचा आग्रह धरला असता तर कदाचित व्यवस्थापन परिषदेने तो ठराव शासनाकडे पाठवला असता; परंतु परिषदेने ठराव पाठवला नसल्यामुळे शासनाला पळवाट मात्र काढता आली. खरे तर पुरोगामी महाराष्ट्राचा वारसा चालवत असल्याचा आव आणणार्‍या राजकीय नेत्यांपासून साहित्यिक आणि लेख, कवींच्याही पुरोगामी निष्ठा तपासण्याची वेळ आली आहे. 

महाराष्ट्रातील पुरोगामी विचारांच्या प्रत्येक माणसाला सासवड येथे सावित्रीबाईंच्या जन्मदिनी सुरू झालेल्या अधिवेशनात नामविस्ताराची चर्चा मान्यवरांनी करणे अपेक्षित होते. सावित्रीबाईंच्या जन्मदिनी संमेलन सुरू होणार असल्याने अपेक्षा उंचावल्या होत्या. मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण हे संमेलनाच्या विचारपीठावर ही घोषणा करतील असे वाटले होते. प्रत्यक्षात विद्यापीठ नामविस्ताराची घोषणा सोडा, सावित्रीबाईंचा साधा उल्लेखही कोणी केला नाही आणि मुख्यमंत्री तर तिकडे फिरकलेही नाहीत. उद््घाटनाच्या मंडपात सावित्रीबाईंचा फोटोदेखील नव्हता. मग हार कुठून असणार. फोटो लावून हार घालण्याचे सौजन्यही दाखवले नाही. सर्व वक्त्यांनी आचार्य अत्र्यांच्या मूळ गावी सासवड मुक्कामी संमेलन असल्यामुळे अत्र्यांचा महिमा सांगितला, ते योग्य होते; परंतु त्यांच्याच तालुक्यात सासर असलेल्या सावित्रीबाईंना मात्र अनुल्लेखाने मारले. पुरंदर तालुक्यातील खानवडी हे जोतिबा फुल्यांचे गाव आहे. महाराष्ट्रातील ज्येष्ठ पुरोगामी नेते असा ज्यांचा सतत उदोउदो केला जातो, त्या शरद पवारांनी उद्घाटकाची महत्त्वपूर्ण जबाबदारी पार पाडताना तरी सावित्रीबाईंचे स्मरण करावयास हवे होते. सावित्रीच्या लेकींसाठी महिला सबलीकरणाचे धडे देत फिरणार्‍या बारामतीच्या खासदार सुप्रिया सुळे यांनाही आपल्या भाषणात सावित्रीचे विस्मरण झाले. 

पुरोगामी चळवळीतील ज्येष्ठ कवी आणि मराठवाडा विद्यापीठ नामांतराच्या चळवळीत सहभाग घेणारे तसेच 'आई' कवितेने आपल्या संवेदनशील मनाची साक्ष देणारे साहित्य वतरुळातील प्रतिष्ठेचे संमेलनाध्यक्षपद भूषवणारे 'आई'फेम फ. मुं. शिंदेही सावित्रीमाईंना विसरले. पवारांनी तर नाहीच; पण फ.मुं.नीदेखील छत्रपती शिवाजी महाराज, फुले-शाहू-आंबेडकर यांचा नामोल्लेख टाळला. त्यांनी अन्य कोणत्याही नेत्याचे नाव घेतले नसते तर प्रश्न उभा राहिला नसता; परंतु स्वातंत्र्यवीर सावरकर आणि वल्लभभाई पटेल यांचा उल्लेख करून फ.मुं.नी 'नमो'ची भाषा केली हेच दिसून आले. स्वत:च्या पुरोगामीत्वाचा डंका पिटणार्‍या संमेलनाध्यक्षांनी सामाजिक भान ठेवण्याऐवजी मैफलीत बसल्यासारखे उथळ कोट्य करणेच पसंत केले. मैफलीत बसल्यावर आपल्याच साहित्य कृतींवर सोबत्यांना टाळय़ा देणार्‍यांनी पवारांच्या हातावर टाळी दिली नाही हे संमेलन आयोजकांचे नशीबच म्हणायचे. दुसरी महत्त्वाची गोष्ट अशी की, ज्या संमेलनात संवैधानिक पदे भूषवणारे राज्यपाल डी. वाय. पाटील होते, केंद्रीय कृषीमंत्री शरद पवार होते, तिथे संविधानाचा आणि आपल्या राष्ट्रीयत्वाचा मान ठेवण्यासाठी राष्ट्रगीत होणे आवश्यक होते. पसायदान झाले हे संमेलनातील सारस्वतांच्या भावनेचा आदर होता असे समजू शकते. पण राष्ट्रगीत होऊ नये याचे सर्मथन कसे होईल. संमेलनातील मान्यवरांचा वैचारिक गोंधळ उडाला की काय अथवा त्यांनी जाणीवपूर्वक काही गोष्टींकडे दुर्लक्ष केले कीकाय, असा संभ्रम निर्माण झाला. सावित्रीबाईंचा नामोल्लेख टाळला आणि डॉ. नरेंद्र दाभोळकरांच्या हत्येचा निषेधही केला नाही. पुरोगामित्वावरील निष्ठा ठामपणे व्यक्त करण्याची नामी संधी या सर्वांनी का दवडली, त्यांना कोणत्या शक्तींनी आणि प्रवृत्तींनी मागे खेचले हा संशोधनाचा विषय आहे. 

रिपब्लिकन नेते रामदास आठवले हे हिंदुत्वावाद्यांसोबत गेल्यामुळे त्यांना सतत आपले पुरोगामित्व सिद्ध करावे लागत आहे. संमेलनाचे मोठे स्टेज मिळाल्यामुळे ते कदाचित पुणे विद्यापीठ नामांतर अथवा दाभोळकरांची हत्या हे विषय बोलतील म्हणून त्यांना भाषणाची संधीच दिली नाही, याचा वचपा काढण्यासाठी आणि दाभोळकरांच्या हत्येचा निषेध करण्यासाठी रिपाइं कार्यकर्त्यांनी दुसर्‍या दिवशी संमेलनावरच मोर्चा काढला. पुणे विद्यापीठाला सावित्रीबाईंचे नाव देण्यासाठी १९९६-९७ सालापासून जोर धरण्यात आला. आंबेडकरी संघटना तसेच डाव्या पुरोगामी संघटनांना नामांतरासाठी मोर्चे, धरणे, निदर्शने करावी लागली. हळूहळू सर्व बहुजनांना जाग येऊ लागली, मराठा सेवा संघ, मराठा महासंघ, बहुजन शिक्षक संघ, सत्यशोधक संघटना, ओबीसी संघटना या सर्वांनी ही मागणी लावून घरली. त्यानंतर २000 साली 'ज्ञानज्योती सावित्रीबाई फुले विद्यापीठ पुणे' नामकरण कृती समितीची स्थापना प्रा. गौतम बेंगाळे यांनी केली. महाराष्ट्रातील विविध राजकीय पक्षांसह अनेक संघटनांचे प्रतिनिधी या कृती समितीमध्ये कार्यरत आहेत. या आंदोलनाची दखल घेऊन विद्यापीठ अधिसभेने २६ ऑक्टोबर, २0१३ रोजी 'ज्ञानज्योती सावित्रीबाई फुले पुणे विद्यापीठ' असा नामविस्तार करण्याच्या ठरावास मंजुरी दिली; परंतु विद्यापीठ व्यवस्थापन परिषदेने या विषयासंदर्भात बैठक लावली नसल्यामुळे नामविस्ताराचा घोळ कायम राहिला आहे. दरम्यान, नामविस्ताराला काही ओबीसी संघटनांनी विरोध दर्शविला असून, नामकरणात 'पुणे' शब्द नसावा, असा आग्रह धरला आहे तर राष्ट्रसेवा दलासारख्या पुरोगामी संघटनांनी नामविस्ताराला आक्षेप नसल्याचे स्पष्ट केले आहे. पुणे ही केवळ पेशव्यांची, प्रतिगामी ब्राह्मणांची तसेच सनातन्यांची जहागीर नसून, पुणे हे जोतिबांचे आहे, सावित्रीचे आहे, पुरोगामी चळवळीचे केंद्र आहे, या शहराला प्रबोधनाचा वारसा आहे, उलट सावित्रीबाईंचे नाव पुणे विद्यापीठाला दिले तर पुण्याची सनातनी पेशवाई आणि प्रतिगामी ही ओळख पुसली जाईल, त्यामुळे 'पुणे' नाव लावण्यासंबंधीचा मुद्दा उपस्थित करून नामविस्तार प्रक्रिया लांबवण्याचा छुपा अजेंडा राबवला जात आहे की, काय अशी शंका येते. त्यामुळे आंदोलनाची तीव्रता वाढविली जात आहे. गेल्या ३ जानेवारी रोजी राष्ट्रसेवा दलाच्या महिलांनी पुणे विद्यापीठावर दुचाकी रॅली काढून ज्ञानज्योती सावित्रीबाई फुले नाव धारण करणारा फलक मोठय़ा उत्साहात, घोषणांच्या गजरात विद्यापीठाच्या प्रवेशद्वारावर लावला आणि चेंडू सरकारच्या कोर्टात टोलवला आहे. आता सरकारला जाग केव्हा येते ते पाहूया. नामविस्ताराने विद्यापीठाचा दर्जा सुधारणार आहे का? असा प्रश्न विचारून खोडा घालण्याचा प्रय▪काही हितसंबंधी मंडळी करत आहेत. नामविस्ताराने विद्यापीठाचा दर्जा सुधारणार नसेलही; पण येथील प्रतिगाम्यांनी एकविसाव्या शतकातही 'जुनं तेच पुणं' ही जी पुण्याची प्रतिमा केली आहे, ती नक्कीच पुसली जाईल.